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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

सारंगपुर ६

प्रत्येक अवस्था में निहित दो-दो अवस्थाओं और वाणी के प्रकार

संवत् १८७७ में श्रावण कृष्णा दशमी (२ सितम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीसारंगपुर ग्राम-स्थित जीवाखाचर के राजभवन में उत्तरी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय नित्यानन्द स्वामी ने प्रश्न किया कि, “एक-एक अवस्था में अन्य दो-दो अवस्थाएँ कैसे रही हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह जीवात्मा जिसमें रहकर विषयभोगों को भोगती है, उसे ‘अवस्था’ कहते हैं। वह अवस्था जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति नाम से तीन प्रकार की है। उनमें जो जाग्रत अवस्था है, वह वैराजपुरुष की स्थिति-अवस्था का कार्य है। वह सत्त्वगुणात्मक है और नेत्र-स्थान में रही है। ऐसी जाग्रत अवस्था में विश्वाभिमानी१११ नामक जीवात्मा स्थूल देह के अभिमान के साथ दस इन्द्रियों और चार अन्तःकरणों द्वारा विवेकपूर्वक यथार्थरूप से अपने पूर्वकर्मों के अनुसार बाह्य शब्दादि पंचविषयों के भोगों को भोगती है। उसे सत्त्वगुणप्रधान जाग्रत अवस्था कहते हैं।

“उस जाग्रत अवस्था में यदि जीवात्मा भ्रान्त रहकर अयथार्थ रूप से बाह्य विषयभोगों को भोगती है, तो उसे जाग्रत अवस्था में स्वप्न अवस्था कहते हैं। यदि वह (जीवात्मा) जाग्रत अवस्था में शोक तथा श्रमादि के कारण विवेक रहित होकर जब बाह्य विषयभोगों को भोगती है, तब उसे जाग्रतावस्था में सुषुप्ति कहते हैं।

“तथा स्वप्नावस्था तो हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति-अवस्था का कार्य है। ऐसी रजोगुणात्मक अवस्था कंठ-स्थान में रही है। उस अवस्था में तैजसाभिमानी नामक जीवात्मा सूक्ष्म देह के अभिमानसहित रहता हुआ इन्द्रियों तथा अन्तःकरणों द्वारा पूर्वकर्मों के अनुसार सुख-दुःखरूपी वासनामय भोगों को भोगता है, उसे रजोगुणप्रधान स्वप्नावस्था कहते हैं।

“इस स्वप्नावस्था में यह जीवात्मा जब जाग्रतावस्था की तरह ही विवेकपूर्वक जानते हुए वासनामय भोगों को भोगती है, तब इसे स्वप्नावस्था में जाग्रत अवस्था कहा जाता है। उस स्वप्नावस्था में विदित वासनामय भोगों को भोगती हुई भी वह जीवात्मा यदि जडता के कारण उन्हें न जान पाए, तो इसे स्वप्नावस्था में सुषुप्ति कहते हैं।

“यह सुषुप्ति अवस्था ईश्वर की प्रलयावस्था का कार्य है, और तमोगुणात्मक है और हृदय-स्थान में रहती है। ऐसी यह सुषुप्ति-अवस्था जब जीव में आती है, तब इन्द्रियों और अन्तःकरण की वृत्तियाँ, विषयभोग की वासना तथा ज्ञातृत्व११२ एवं कर्तृत्व११३ ये समस्त कारण देह में विलीन हो जाते हैं। और, इस कारण देह की अभिमानी प्राज्ञ नामक जीवात्मा है, जिसकी प्रधानपुरुषरूप सगुणब्रह्म११४ के अल्प सुख में अतिशय लीनता हो जाती है, उसे तमोगुणप्रधान सुषुप्ति अवस्था कहते हैं।

“और, इस सुषुप्ति अवस्था में कर्म-संस्कार द्वारा जिस कर्ता-वृत्ति११५ की उत्पत्ति होती है, उसे११६ सुषुप्ति में स्वप्न कहते हैं; और जाग्रत एवं स्वप्नावस्था में उत्पन्न होनेवाली पीड़ा के ताप से, पुनः सुषुप्ति अवस्था के सुख में प्रवेश करनेवाली जो कर्तावृत्ति है, उसके प्रतिलोम-भाव के ज्ञान को सुषुप्ति में जाग्रत अवस्था कहते हैं।

“इस प्रकार एक-एक अवस्था में अन्य दो-दो अवस्थाएँ रहती हैं। इन अवस्थाओं के भेद का ज्ञान जीवात्मा को जिसके द्वारा होता है तथा उस-उस अवस्था में उस जीव को कर्मानुसार जो फल प्रदान करता है, उसे तुर्य पद, अन्तर्यामी, द्रष्टा, ब्रह्म तथा परब्रह्म कहते हैं।”११७

फिर नित्यानन्द स्वामी ने पुनः प्रश्न किया कि, “परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी नामक जो चार वाणियाँ हैं, उन्हें किस प्रकार समझा जाए?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “यह वार्ता तो बहुत बड़ी है और अत्यन्त सूक्ष्म भी है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धवजी से यह वार्ता कही है। उसको संक्षिप्तरूप से कहते हैं, उसे सुनिए। प्रथम उत्पत्तिकाल में पुरुषोत्तम भगवान ने वैराजपुरुष के मस्तक में स्थित सहस्र-दल कमल में प्रवेश करके अक्षरब्रह्मात्मक नाद किया। फिर वह नाद सुषुम्णा मार्ग द्वारा विराटपुरुष के नाभिकन्द में व्याप्त होकर महाप्राण सहित वहाँ से बहुत ऊँचा चला गया। इससे उन विराटपुरुष का अधोमुख नाभिपद्म ऊर्ध्वमुख हो गया। इस प्रकार, उन विराटपुरुष के नाभिकन्द में जो नाद हुआ, उसे परावाणी कहते हैं। उसी परावाणी को स्वयं भगवान ने वेद की उत्पत्ति के लिए बीजरूप से प्रकाशित किया है। वह तेज के प्रवाहरूप है और अर्धमात्रारूप है। इसके बाद वही परावाणी वहाँ से विराट के हृदयाकाश में पहुँचकर पश्यन्ती नामवाली हुई। वहाँ से वह कंठप्रदेश में पहुंचकर मध्यमा नाम से विख्यात हुई। वहाँ से वह विराट के मुख में पहुँचकर वैखरी संज्ञा को प्राप्त हुई और अकार, उकार तथा मकार नामक तीन वर्गों का रूप ग्रहण करके प्रणव-रूप हो गई। बाद में बावन अक्षरों का स्वरूप ग्रहण करके उसने चार वेदों का रूप धारण कर लिया। इस प्रकार विराटपुरुष में परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी नामक चार वाणियाँ समझनी चाहिए।

“अब इस जीव की देह में भी चार वाणियाँ कहते हैं, उन्हें सुनिए। वे ही पुरुषोत्तम भगवान उस जीव में अन्तर्यामीरूप से रहते हैं। वे जीव की तीनों अवस्थाओं में स्वतन्त्र होते हुए अनुस्यूत हैं। वही भगवान जीव के कल्याण के लिए पृथ्वी पर अवतार धारण करते हैं। तब वह जीव उन भगवान के स्वरूप तथा उनके धाम, गुणों और ऐश्वर्यों का प्रतिपादन करता है तथा उनके चरित्रों का वर्णन करता है, तथा आत्मा-अनात्मा का विवेक प्रस्तुत करता है, तथा जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म और परब्रह्म के भेदों को पृथक्-पृथक् करके दिखलाता है, उस वाणी को परावाणी कहते हैं। और, जो मायिक पदार्थों तथा विषयों को विवेकपूर्वक यथार्थ रूप से कह दिखाती है, उसे वैखरी वाणी कहा जाता है। पदार्थों तथा विषयों को भ्रान्ति सहित जो अयथार्थ रूप से कह दिखाती है, उसे मध्यमा वाणी कहते हैं। तथा उन पदार्थों और विषयों को जो उलट-सुलट करके दिखाती है, जिसमें कुछ भी समझने में न आये, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। इस प्रकार जीव की जाग्रत अवस्था में इन चारों वाणियों के रूप समझ में आते हैं। तथा स्वप्नावस्था एवं सुषुप्ति-अवस्था में तो समाधि की स्थिति रखनेवाले से ही इन चारों वाणियों के स्वरूप समझे जाते हैं, किन्तु अन्य किसी की समझ में वह नहीं आते हैं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ ८४ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१११. स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण नामक तीन देहों के अभिमान से जीव का विश्व, तेजस् और प्राज्ञ नाम से तीन नामाभिधान हुआ है। जो कि वास्तविक नहीं, किन्तु उपाधि के कारण है। इसीलिए यहाँ ‘विश्वाभिमानी’ शब्द का प्रयोग किया है।

११२. जीव विषयों को जानता है, वही ज्ञातृत्व है।

११३. जीव अहंवृत्ति के कारण विषयों के लिए कर्म करता है, वही कर्तृत्व है।

११४. सगुणब्रह्मरूप प्रधानपुरुष।

११५. कर्म करनेवाला जो जीव है, इस प्रकार की वृत्ति की।

११६. रजोगुणप्रधान।

११७. यहाँ ब्रह्म और परब्रह्म दोनों को अलग तत्त्व के रूप में निर्देशित किया गया है।

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