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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ६७

सत्पुरुष के गुण प्राप्त होने के उपाय

संवत् १८७६ में चैत्र शुक्ला सप्तमी (२१ मार्च, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में मुनियों के निवासस्थान में विराजमान थे। वे श्वेत वस्त्र धारण किए हुए थे। उनके समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज ने मुनियों से पूछा, “कोई सत्पुरुष हैं, जिन्हें इस लोक के सुख का तो मोह ही नहीं है, किन्तु परलोक, जो भगवान का धाम है, तथा भगवान की मूर्ति है, उन्हीं में वासना बनी हुई है। और जो कोई जीव उनका संग करता है, उसका भी वे इसी प्रकार हित करते हैं कि, ‘यह जो मेरा संगी है, उसकी सांसारिक वासना मिट जाए और भगवान से प्रीति हो जाए तो बहुत अच्छा होगा।’ ऐसे सत्पुरुष जो कुछ भी यत्न करते हैं, वे सब भगवान के धाम में पहुँचने के बाद सुख हो, ऐसे ही प्रयत्न करते हैं। परन्तु वे अपने दैहिक सुख के लिए कोई भी क्रिया करते ही नहीं। ऐसे सत्पुरुष के समान गुण, मुमुक्षु में किस प्रकार की समझ हो तो आ सकते हैं, और किस तरह की समझ हो, तो उसमें नहीं आते?”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने कहा, “जिन्हें इस लोक के सुखों की इच्छा नहीं है, ऐसे सत्पुरुष के प्रति देवबुद्धि हो तथा वे जो भी आज्ञा दें, उन वचनों को सत्य मानकर तदनुसार आचरण करे, तब सत्पुरुष के गुण मुमुक्षु में आते हैं। और यदि ऐसा न हुआ तो सत्पुरुष के गुण नहीं आते।”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “यह उत्तर तो ठीक है, परन्तु इस तरह समझे, तो महान सत्पुरुष के गुण मुमुक्षु के अंतर में सिद्ध होते हैं। उस समझ की रीति को बताते हैं, उसे सुनिए। जिन पुरुष को परमेश्वर के सिवा अन्यत्र कहीं भी प्रीति नहीं होती, उनके गुणों को मुमुक्षु इस प्रकार ग्रहण करता रहे कि, ‘ये पुरुष तो बहुत बड़े हैं, और इनके आगे लाखों मनुष्य हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं, फिर भी वे संसार के सुखों की लेशमात्र भी इच्छा नहीं करते हैं। और, मैं तो ऐसा घोर पामर जीव हूँ कि केवल सांसारिक सुखों में ही आसक्त रहता हूँ और परमेश्वर की वार्ता को तो लेशमात्र भी नहीं समझता, इसलिए मुझे धिक्कार है।’ इस प्रकार की आत्मग्लानि करता हो, तथा उस सत्पुरुष के गुणों को ग्रहण करता हो, तथा अपने अवगुणों पर पश्चात्ताप करता रहता हो। तत्पश्चात् ऐसे पश्चात्ताप करते-करते उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, इसके बाद उसमें सत्पुरुष जैसे गुण आते हैं।

“अब जिसके हृदय में सत्पुरुष के गुण बिल्कुल नहीं आते, उसके लक्षण कहते हैं, उन्हें सुनिए। जो पुरुष ऐसा समझता है कि, ‘यद्यपि ये महापुरुष कहलाते हैं, फिर भी इनमें किसी प्रकार का विवेक नहीं है, इन्हें न तो खाने-पीने का ढंग ही मालूम है और न ओढ़ना तथा कपड़े पहनना ही आता है। और, परमेश्वर ने इन्हें बहुत सुख दिया है, फिर भी उसका उपभोग करना नहीं आता और वे किसी को कुछ देते भी हैं, तो उसे बिना विचार-विवेक के ही दे देते हैं।’ इस प्रकार सत्पुरुष में ऐसे अनंत प्रकार के अवगुण ठहराता रहता है, ऐसे दुर्बुद्धि पुरुष में कभी सत्पुरुष के गुण आते ही नहीं।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ६७ ॥

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