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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २६

मन-इन्द्रियों को वशवर्ती रखनेवाले संत

संवत् १८८५ में कार्तिक शुक्ला एकादशी (१७ नवम्बर, १८२८) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीगोपीनाथजी के मन्दिर में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय श्रीजीमहाराज ने इस प्रकार वार्ता कही कि, “भगवान के समान सेवा करने योग्य सन्त कैसे होते हैं? तो जो सन्त इन्द्रियों तथा अन्तःकरण आदि मायिक गुणों की क्रियाओं को दबाकर बरतते हों, किन्तु उनकी क्रियाओं से स्वयं कभी नहीं दबते हों, यानी पराभूत होते हों; और भगवान सम्बंधी क्रिया को ही करते रहते हों; तथा पंचव्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करते हों; और स्वयं को ब्रह्मरूप मानते हों और पुरुषोत्तम भगवान की उपासना करते हों। ऐसे संत को मनुष्य सदृश नहीं जानना और देव सदृश भी नहीं मानना। क्योंकि वैसी क्रिया देवता या मनुष्य में नहीं पाई जाती। और, ऐसे सन्त मनुष्य होने पर भी भगवान के समान सेवा करने योग्य हैं। इसलिए, जिसे आत्मकल्याण की गरज़ हो, ऐसे भक्तों को ऐसे (उपरोक्त लक्षणवाले) सन्त की सेवा करनी चाहिए तथा स्त्रियों को ऐसे ही साधुगुणोंवाली भक्त स्त्रियों की सेवा करनी चाहिए।”

फिर श्रीजीमहाराज से आत्मानन्द स्वामी ने पूछा कि, “जो भक्त पंचव्रतों की मर्यादा में रहता है, वह चाहे सामान्य स्तर का मुमुक्षु क्यों न हो, उसे पंचविषयों का कोई बन्धन हो नहीं सकता? तथापि ऐसा कोई भक्त होगा जो कदाचित् विपरीत देशकाल के कारण सत्संग से दूर हो चुका हो, फिर भी उसे देश-काल के योग से पंचविषयों का बन्धन न हो सके? कृपया ऐसे भक्त के लक्षण बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “जिसकी बुद्धि में धर्मांश विशेष रूप से विद्यमान हो तथा यह आस्तिकता रही हो कि, ‘इस लोक में जो कोई अच्छा या बुरा कर्म करते हैं, उन्हें उन कर्मों के अच्छे या बुरे फल परलोक में जाकर भी अवश्य भोगने पड़ते हैं,’ ऐसी दृढ़ मति के साथ-साथ जिसे अपनी प्रतिष्ठा की चिंता हो कि, ‘यदि इस लोक में मैं बुरा काम करूँगा तो लोगों के सामने क्या मुख दिखाऊँगा?’ ऐसा लज्जाशील व्यक्ति चाहे जहाँ भी जाए, उसे कोई पदार्थ अथवा स्त्री आदि पंचविषय बन्धन नहीं डाल सकते। जैसे कि मायाराम भट्ट, मूलजी ब्रह्मचारी तथा निष्कुलानन्द स्वामी हैं; इनके जैसे जो होते हैं, उन्हें स्त्री-धनादि का संयोग उपस्थित हो जाए, फिर भी वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हो सकते।

“और, दो प्रकार के दोष तो धर्मनिष्ठा की दृढ़ता में अत्यंत विघ्नरूप हैं। उनमें से एक आत्मनिष्ठावाला भक्त, दूसरा भगवान की अत्यन्त महिमा जाननेवाला भक्त है। जिसे आत्मनिष्ठा है और ऐसा मानता है कि, ‘मैं तो आत्मा हूँ, ब्रह्म हूँ, अतः मुझे शुभ-अशुभ क्रिया बन्धनकारी नहीं हो सकती, मैं तो असंग हूँ।’ ऐसा मानता हो। और दूसरा ऐसा भक्त है कि वह भगवान की महिमा तो बहुत समझता है, और उसके सम्बंध में बातें भी बहुत करता है और कहता है कि, ‘धर्म के विरुद्ध यदि कोई आचरण हो गया तो उसकी क्या मजाल है? भगवान की बहुत बड़ी महिमा है।’ ऐसे दोनों प्रकार के भक्तों की धर्मनिष्ठा कभी दृढ़ नहीं हो सकती। इन दोनों प्रकार के भक्तों के ये कुविचार धर्म के पालन में बड़े ही विघ्नरूप होते हैं।

“इसलिए, ऐसा समझना उचित होगा कि, ‘आत्मनिष्ठा तथा भगवान के माहात्म्य को अच्छी तरह समझते हुए निष्काम, निर्लोभ, निःस्वाद, निःस्नेह तथा निर्मान आदि पंचवर्तमानरूप धर्म का पालन दृढ़तापूर्वक एवं भगवान की प्रसन्नता के लिए किया करें।‘ तथा ऐसा समझें कि, ‘यदि मैं इन धर्मों का पालन करूँगा तो मुझ पर भगवान अत्यन्त प्रसन्न होंगे परन्तु यदि धर्मपालन में कुछ शिथिलता होगी, तो भगवान मुझ पर बहुत अप्रसन्न हो जाएँगे।’ इस प्रकार जिसके अन्तःकरण में पूर्ण दृढ़ता हो, तो वह भक्त कभी भी धर्मभ्रष्ट नहीं होगा। तथा उसे कोई भी मायिक पदार्थ बंधन में नहीं डाल सकेगा। यदि वह ऐसा नहीं समझता होगा, और वह चाहे कैसा भी ज्ञानी अथवा भक्तिमान है, परन्तु उसको भी निश्चित रूप से धर्मपालन में भी कोई न कोई विघ्न उपस्थित हो जाता है, तथा मायिक पदार्थ भी उसे बंधन में डाल देता है। यह सिद्धांत-वार्ता है।”

इसके पश्चात् श्रीजीमहाराज ने पुनः कृपा करके उपदेश दिया कि, “मुझे अहंकार पसन्द नहीं है। भले ही वह अहंकार भक्ति, त्याग, वैराग्य, ब्रह्मत्व, ज्ञान तथा पंचव्रतों के पालन की भावना का ही क्यों न हो, हमें ऐसा अहंकार पसन्द नहीं है। और दम्भ पसन्द नहीं है। वह दम्भ क्या है? तो भले ही अपने हृदय में भगवान के स्वरूप का निश्चय, भक्ति और धर्मनिष्ठा कम हों, किन्तु दूसरों के आगे अपनी महत्ता बढ़ाने की दृष्टि से इन सबको बढ़ाचढ़ा कर दिखाया करे, वही दम्भ है जो मुझे तनिक भी पसन्द नहीं है।

“और, हमें यह बात भी पसन्द नहीं है कि स्वयं को और भगवान को अभेदरूप में समझें। यह बात भी रुचिकर नहीं लगती, कि कोई भी मनुष्य ने अपने मन ही मन किसी नियम पालने की सोच रखी हो, और वह नियम घड़ीभर में पालन करने लगे, या घडीभर में उसे छोड़ दे इस प्रकार ऐसा शिथिल आचरण तो हमारे लिए असह्य है। हमें यह बात भी पसन्द नहीं है कि भगवान की महिमा को कोई बहुत अच्छी तरह समझता हो तथा स्वयं को उनके आगे अति तुच्छ एवं छोटा समझता हो, परन्तु वह स्वयं को देह से भिन्न आत्मरूप नहीं समझता, तो वह भी पसन्द नहीं है।

“और, अब हम उन बातों को बताते हैं, जो हमें रुचिकर लगती हैं। जो भगवान की महिमा को तो यथार्थरूप से समझता हो, और स्वयं की आत्मा को देह से पृथक् ब्रह्मरूप समझे, और धर्म में दृढ़ निष्ठा रखते हुए भगवान की अविचल भक्ति करता हो; ऐसी स्थिति को प्राप्त करके भी वह ऐसा ही समझता हो कि सत्संग में कुछ भी न समझनेवाला, परंतु जिसे भगवान का अविचल निश्चय हो ऐसा भक्त वास्तव में महान है। इस प्रकार समझते हुए, वह उस भक्त के आगे स्वयं को अति तुच्छ जानता हो; तथा उपदेश वचन कहते हुए वह अपने ज्ञान की महत्ता को किसी के भी आगे बिल्कुल प्रकट न करता हो, ऐसा भक्त तो हमें बहुत अधिक पसन्द है।”

इस प्रकार वार्ता करने के पश्चात् श्रीजीमहाराज अपने निवासस्थान में पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ २६ ॥ २४९ ॥

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