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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा अंत्य २२

सखी-सखा भाव

संवत् १८८४ में भाद्रपद कृष्णा चतुर्थी (९ सितम्बर, १८२७) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। पाग में श्वेत पुष्पों के तुर्रे झुके हुए थे और कंठ में सफ़ेद फूलों के हार सुशोभित हो रहे थे। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी। परमहंस दुक्कड़ और सरोद लेकर विष्णुपद गा रहे थे। तब श्रीजीमहाराज अन्तर सम्मुख दृष्टि करके विराजमान थे।

फिर श्रीजीमहाराज बोले कि, “प्रेमलक्षणा भक्तियुक्त इस भजन में हरिभक्त का जैसा अंग बताया गया है, वैसा अंग तो झीणाभाई में दिखाई देता है तथा पर्वतभाई और मूलजी ब्रह्मचारी के भी ऐसे ही अंग थे। इसलिए, हम अन्तर सम्मुख दृष्टि करके विचार कर रहे थे कि सत्संग में अन्य भी ऐसे ही अंग से संपन्न भक्त होंगे। और, जिसको प्रेमलक्षणा भक्ति का अंग सिद्ध हो जाता है, उसकी तो पंचविषयों में आसक्ति मिट जाती है तथा उसके भीतर आत्मनिष्ठा भी बिना सिद्ध किए ही बनी रहती है।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने पूछा कि, “नरसिंह मेहता तो सखीभाव द्वारा श्रीकृष्ण भगवान की आराधना करते थे और नारद आदि कितने ही भगवद्भक्त दासभाव से भगवान की आराधना करते हैं। इन दोनों प्रकार के भक्तों में से किसकी भक्ति श्रेष्ठ है?”

प्रश्न सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “नरसिंह मेहता, गोपियाँ और नारद-सनकादि की भक्ति के दो प्रकार है ही नहीं, एक ही प्रकार की है। और, देह तो चाहे पुरुष का हो, चाहे स्त्री का, दोनों मायिक और नाशवान हैं; एवं भजन करनेवाली जीवात्मा न तो पुरुष है और न स्त्री ही, वह तो सत्तामात्र चैतन्य है। जब वह देहत्याग करके भगवान के धाम में जाती है तब उसे जैसी परमेश्वर की मर्जी हो, वैसी ही देह मिलती है, अथवा ऐसे भक्त को भगवान की जिस प्रकार की सेवा का मौका मिले, वैसा ही आकार धारण करके वह भगवान की सेवा में रहता है।

“और जिस भगवद्भक्त को भगवान में जैसी प्रीति हो, वैसी ही आसक्ति यदि धन-स्त्री आदि में हो गई, तो उसे भगवान का दृढ़ भक्त नहीं कहा जा सकता। कोई पुरुष परमेश्वर का भक्त होकर भी भक्ति करते समय जो पाप करता है और सत्संग में भी अगर दुर्वासना रखता है, तो वह पाप उसके लिए वज्रलेप हो जाता है। कुसंग में पड़कर परस्त्री का संग करे, उससे भी विशेष पाप यही है कि सत्संग में भगवान के भक्त के ऊपर कुदृष्टि हुई। इसलिए, जिसे भगवान से दृढ़ प्रीति करनी हो, उसे किसी भी प्रकार की पाप-बुद्धि नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि सत्संगी हरिभक्त अपनी माँ, बहन और पुत्री-जैसे हैं। वस्तुतः इस संसार में जो घोर पापी होते हैं, वे अपने गोत्र की स्त्रियों के प्रति भी कुदृष्टि रखते हैं। इसलिए, हरिभक्त के प्रति जो कुदृष्टि रखता है, वह तो घोर पापी है और उसका छुटकारा कभी भी नहीं हो सकता। अतः जिसे रसिक भक्त होना है, उसे इस प्रकार के पाप का परित्याग करने के बाद ही रसिक भक्त होना चाहिए।

“और सभी पापों से बड़ा पाप तो वह है, जो भगवान तथा उनके भक्तों के प्रति दोषबुद्धि रखना और उस दोषबुद्धि द्वारा भगवान और भगवान के भक्त के साथ वैर भाव उत्पन्न हो जाए। अतः कोटि गौहत्या की हो, मद्य-मांस का भक्षण किया हो, तथा असंख्य गुरुस्त्री का संग किया हो, फिर भी उन पापों से तो कभी छुटकारा मिल भी सकता है, किन्तु भगवान तथा भगवान के भक्त का जो द्रोही है, वह कभी भी पापमुक्त नहीं हो पाता। यदि वह पुरुष हो तो राक्षस हो जाता है, और स्त्री हो तो राक्षसी हो जाती है। फिर किसी भी जन्म में ऐसा जीव असुर मिटकर भगवान का भक्त नहीं हो पाता। और, जिसको भगवान के भक्त का द्रोह करते हुए परिपक्व द्रोहबुद्धि हो गई हो, तो किसी भी स्थिति में उसकी द्रोहबुद्धि नहीं मिटती। परन्तु यदि वह द्रोह करने की प्राथमिक स्थिति में हो और यह मानता हो कि, ‘भगवान और भगवान के भक्त का द्रोह करके मैंने घोर पाप किया है, अतः मैं तो अत्यंत नीच हूँ तथा भगवान एवं भगवान के भक्त बहुत बड़े हैं!’ इस प्रकार जो उन दोनों का गुण ग्रहण करता है तथा अपने दोषों के प्रति सतर्क रहता है, उसने चाहे जितने भी पाप किए हों, उन घोर पापों का नाश हो जाता है।

“और, भगवान अपने भक्त से द्रोह करनेवाले पर जितने क्रुद्ध और दुःखी होते हैं, उतना दुःख उन्हें किसी अन्य पाप से नहीं होता। जब वैकुंठलोक में जय-विजय ने सनकादिक का अपमान किया, तब भगवान तत्काल सनकादिक मुनियों के पास आए और उनसे इस प्रकार बोले कि, ‘आप-जैसे साधुओं का जिसने तिरस्कार किया वह मेरा भी शत्रु है। इसलिए आपने जय-विजय को शाप देकर बहुत अच्छा किया। यदि आप जैसे भगवदीय ब्राह्मणों का द्रोह मेरा हाथ भी करे, तो मैं उस हाथ को भी काट डालूँ, तब दूसरे की तो बात ही क्या?’ यूं भगवदीय संतों के अपराधरूपी पाप के कारण जय-विजय दोनों दैत्य बन गए। इस प्रकार, जिन्होंने भी भगवान के भक्त का द्रोह किया है, वे सब उच्चपद से गिर गए हैं। यह बात शास्त्रों में प्रसिद्ध है। इसलिए जिसे अपने आत्मकल्याण की इच्छा है, उसे भगवान के भक्त का द्रोह नहीं करना चाहिए। यदि जाने-अनजाने में उसका कुछ भी द्रोह हो गया हो, तो उसके पैरों में पड़कर उससे प्रार्थना करके, वह जिस प्रकार प्रसन्न हो, वैसा ही आचरण करना चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ २२ ॥ २४५ ॥

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