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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १९

भक्त की व्याख्या और अविवेक

संवत् १८८२ में माघ शुक्ला द्वितीया (९ फरवरी, १८२६) को श्रीजीमहाराज सायंकाल को श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर में पूर्व की ओर रूपचौकी पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

जब ठाकुरजी की सन्ध्याकालीन आरती हो चुकी तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “सुनिये, भगवान की वार्ता करते हैं। इस जीव को जब भरतखंड में मनुष्यदेह मिलती है तब भगवान के अवतार या भगवान के साधु निश्चित रूप से पृथ्वी पर विचरण करते रहते हैं। यदि जीव को उनकी पहचान हो जाए, तो वह जीव भगवान का भक्त हो जाता है। जब वह भगवान का भक्त हो चुका, उसको अन्य किसी भी पदार्थ में प्रीति रखना उचित नहीं है। क्योंकि, भगवान के धाम के सुख के आगे मायिक पंचविषयों का सुख तो नरक तुल्य है। नरक के कीड़े तो नरक को परम सुखदायी समझते हैं। परन्तु जो मनुष्य हैं, वे नरक को परम दुःखदायी समझते हैं। वैसे ही जिसको भगवान की पहचान हो गई, वह भगवान का पार्षद हो गया! उसे भगवान के पार्षद पद से हटकर गंदे कीड़े की तरह मायिक पंचविषयों के सुख की इच्छा नहीं करनी चाहिए।

“जो पुरुष भगवान का भक्त होता है, वह जो-जो मनोरथ करता है, वह सब सत्य हो जाते हैं। अतः जो पुरुष भगवान को छोड़कर अज्ञानवश (आसक्तिवश) अन्य पदार्थों की इच्छा करता है, वही उसका घोर अविवेक होता है। इसलिए, भगवान के भक्त को चौदह लोकों के भोगसुखों को काकविष्टा तुल्य समझना चाहिए तथा मन, कर्म और वचन द्वारा भगवान एवं भगवान के भक्तों में ही दृढ़ प्रीति करनी चाहिए और यह समझना चाहिए कि, ‘भगवान के भक्त को कदाचित् भगवान के सिवा कोई अन्य वासना रह गई, तो वह भी अन्ततः इन्द्रपदवी या ब्रह्मलोक को प्राप्त करेगा, परन्तु प्राकृत जीव की तरह चौरासी लाख योनियों में उसे भटकना नहीं पड़ेगा! तब भगवान का जो यथार्थ भक्त होता है, उसकी महिमा तथा उसके आनन्द का वर्णन ही कैसे किया जा सकता है!’ इसलिए, भगवान का भक्त हो, उसे भगवान में ही दृढ़ प्रीति रखनी चाहिए।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १९ ॥ २१९ ॥

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