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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

वरताल १५

सत्पुरुष के अनुग्रह से आसुरी जीव दैवी होता है

संवत् १८८२ में पौष कृष्णा एकादशी (३ फरवरी, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीवरताल-स्थित श्रीलक्ष्मीनारायण के मन्दिर के आगे नीम वृक्ष के नीचे मंच पर गद्दी-तकिया रखवाकर विराजमान थे। उन्होंने किमखाब का पायजामा पहना था और बगलबंडी पहनी थी, मस्तक पर बड़ा सुनहरा पल्लेदार भारी कुसुम्भी शेला बाँधा था, बड़े-बड़े सुनहरे पल्लों से युक्त भारी कुसुम्भी शेला कन्धों पर डाला था तथा उनके मस्तक के ऊपर स्वर्ण कलशवाला छत्र लगा हुआ था। उनके समक्ष मुनिगण तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय शोभाराम शास्त्री ने पूछा कि, “हे महाराज! जीव के दैवी तथा आसुरी दो प्रकार के स्वरूप अनादिकाल से ही हैं या जीव किसी संगति के कारण दैवी या आसुरी बनते हैं?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “दैवी तथा आसुरी दोनों प्रकार के जीव अनादिकाल से ही सर्वप्रथम माया में लीन हुए थे। परन्तु जब जगत का सृजन होता है, तब ये जीव अपने-अपने दैवी या आसुरी भावों से युक्त होकर उत्पन्न होते हैं। कुछेक साधारण जीव तो दैवी तथा आसुरी जीवों के संसर्ग से दैवी तथा आसुरी हो जाते हैं। कितने तो ऐसे भी हैं, जो अपने-अपने सत्कर्म या दुष्कर्म करते हुए वैसे-वैसे (दैवी अथवा आसुरी) भावों को प्राप्त करते रहते हैं। इस आसुरीभाव के विषय में और दैवीभाव के विषय में मुख्य हेतु तो क्रमशः सत्पुरुष का कोप तथा अनुग्रह है।

“जैसे भगवान के जय-विजय नामक पार्षद सनकादि जैसे सत्पुरुषों के द्रोह के कारण आसुरीभाव को प्राप्त हो गए।२६८ परन्तु प्रह्लादजी तो दैत्य कुल में थे। उन्होंने नारदजी का उपदेश ग्रहण किया, तो वे परम भागवत सन्त कहलाए।२६९ अतः जिस पर महान सत्पुरुष का कोप हो जाता है, वह जीव आसुरी हो जाता है तथा जिस पर वे प्रसन्न हो जाते हैं, वह जीव दैवी हो जाता है, किन्तु दैवी तथा आसुरी होने के अन्य कारण नहीं है। इसलिए, जिसको अपने कल्याण की इच्छा हो, उसे भगवान तथा भगवान के भक्त का द्रोह किसी भी प्रकार नहीं करना चाहिए, उसको तो वही कार्य करना चाहिए, जिससे भगवान तथा भगवान के भक्त प्रसन्न बने रहें।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १५ ॥ २१५ ॥

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२६८. श्रीमद्भागवत: ३/१५/३४

२६९. श्रीमद्भागवत: ७/१०/४३

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