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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १

मोह का स्वरूप

संवत् १८७७ में ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमा (१५ जून, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में विराजमान थे। उन्होंने सफ़ेद धोती धारण की थी, श्वेत चादर ओढ़ी थी, सिर पर सफ़ेद पाग बाँधी थी तथा श्वेत पुष्पों का हार धारण किया था। उनके समक्ष मुनिमंडल तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे। उस समय परमहंस झाँझ, मृदंग द्वारा भक्तिगान कर रहे थे।

श्रीजीमहाराज ने भजन करने वालों से कहा कि, “अब भजन स्थगित रखिए तथा प्रश्नोत्तरी प्रारम्भ कीजिए।”

तब मुक्तानन्द स्वामी ने करबद्ध प्रणाम करके श्रीजीमहाराज से पूछा कि, “हे महाराज! मोह का कैसा स्वरूप है तथा मोह निवारण करने का कौन-सा उपाय है?”

फिर श्रीजीमहाराज थोड़ी देर तक विचारमग्न रहने के बाद बोले, “ऐसा प्रतीत होता है कि मन में कुछ भ्रान्ति की-सी स्थिति बनी रहे, वही मोह का रूप है। व्यक्ति के हृदय में जब मोह की वृद्धि होती है, तब मन में विशेष विभ्रान्ति हो जाती है; फिर कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं रहता। ऐसे मोह की उत्पत्ति होने के कारणों पर हमने आज ही विचार किया है। आज अर्धरात्रि के समय जब हमारी नींद (योगनिद्रा) उचट गई, तब हम (नक्षत्रों के आधार रूप शिशुमार चक्र देखने के बाद) उत्तर दिशा की ओर मुख करके लेटे हुए थे। उस समय ध्रुवतारा दिखाई दिया। उस पर हमने विचार किया कि, ‘यह तो उत्तरी ध्रुव है, परन्तु शास्त्रों२१३ में दक्षिणी ध्रुव का भी वर्णन किया गया है, किन्तु प्रश्न यह है कि वह कहाँ होगा?’ इतने में हमें दक्षिणी ध्रुव भी दिखाई दिया। जिस प्रकार कुएँ पर पानी खींचने की रहट होती है, वैसे ही दोनों ध्रुवों के बीच एक विराट रहट देखी। उस रहट की मेरु के दो सिरे दोनों ओर ध्रुव की भाँति लगे हुए हैं। जैसे लकड़ी के खम्भों में लोहे की कीलें लगी हुई हों, उसी प्रकार वह रहा है। उस रहट पर जैसे सूत की रस्सी लिपटी रहती है और उस रहट के साथ पीतल की जैसी फुल्लियाँ जड़ी होती हैं, वैसे ही समस्त तारागण, देवता तथा नवग्रह आदि अपने स्थानरूपी रहट का आश्रय लेकर रहते हैं, उन सबको देखा।

“इसके पश्चात् सूर्य और चन्द्र के उदय एवं अस्त को भी, जो एक ही (मुख्य) स्थान से होता है, देखा। बाद में अन्तर्दृष्टि द्वारा यह भी देखा कि जितने ध्रुव आदि स्थान ब्रह्मांड में हैं, वे सब पिंड में भी हैं। फिर इस देह में स्थित क्षेत्रज्ञ को भी देखा। उस क्षेत्रज्ञ में स्थित पुरुषोत्तम भगवान को भी देखा। उस भगवान के दर्शन करके हमारा मन उनके स्वरूप में पूर्णतः तन्मय हो गया। यह समाधि किसी भी प्रकार से भंग नहीं हुई। इसके पश्चात् कोई भक्त ने हमारी बहुत स्तुति की, तभी उस पर दया करके हमें पुनः शरीर में स्थित होना पड़ा। इसके बाद में हमारे अन्तःकरण में यह विचार हुआ कि, ‘समाधि में से हम दयावश बाहर निकल कर आए हैं, परन्तु जिन अन्य पुरुषों को समाधि में से बाहर निकलना पड़ता है, उसका क्या कारण होगा?’

“तब हमें ऐसा प्रतीत हुआ कि किसी विषय में इसकी आसक्ति है जो उसको समाधि में से पुनः बाहर खींच लाती है। और, मोह का कारण भी पंचविषय ही हैं। ये विषय भी तीन प्रकार के हैं, जो उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ के रूप में हैं। इनमें से उत्तम विषय की प्राप्ति होने पर उसमें जब कोई अन्तराय (विघ्न) करता है, तब उस पर क्रोध होता है और क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। तथा सामान्यतः श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द का तथा त्वचा और स्पर्श का जैसा सदैव सम्बंध बना रहता है; उसी प्रकार पंचविषयों का पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ सम्बंध बना हुआ है। अतः जिस पदार्थ को सामान्य रूप से देखा हो, उसमें से अपनी वृत्ति को तोड़कर यदि उसे भगवान के स्वरूप में रखना हो, तो उसके लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। सहज ही उस विषय से वृत्ति टूट कर भगवान के स्वरूप में तल्लीन हो जाती है। और, यदि स्त्री आदि का अतिशय रमणीय रूप दिखाई दिया और उसमें चित्तवृत्ति तन्मय हो गई, तो भगवान के स्वरूप में ध्यान लगाने पर भी उसका मन नहीं लग पाता और चित्त भी ठिकाने पर नहीं रहता। अतः जब तक चित्त रमणीय पंचविषयों में आकृष्ट होता है, तब तक मोह नहीं मिट सकता। और, जब उसे अपना रुचिकर विषय मिले और उसमें चित्त आकृष्ट हो जाए, तब यदि सन्त, गुरु एवं अपने इष्टदेव भगवान उस विषयभोग का निषेध करें, तो वह उन पर भी कुपित हो जाता है और उनका द्रोह करने लग जाता है, किन्तु उनके वचन को मान्य नहीं रखता। जिसके अन्तःकरण में ऐसी वृत्ति बनी हुई हो, उसे मोह कहा जाता है। भगवान ने गीता में कहा है:

‘ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति॥’२१४

“श्रीकृष्ण भगवान द्वारा कहे गए ये वचन परम सिद्धान्त के द्योतक हैं।

“जब शब्दादि विषयों में से किसी भी विषय में चित्त आसक्त हुआ, तब चाहे कैसा ही बुद्धिमान पुरुष क्यों न हो, उसकी बुद्धि का ठिकाना नहीं रह पाता और वह पशु के समान हो जाता है। अतः मोह की उत्पत्ति होने का कारण उन विषयों में आसक्ति रहती है, वही है।

“और जो पुरुष इन विषयों में से अपने मन को हटाने का इच्छुक हो, उसे सर्वप्रथम आत्मनिष्ठा को अत्यन्त सुदृढ़ कर लेना चाहिए कि, ‘मैं आत्मा हूँ, परन्तु देह नहीं हूँ।’ एक तो इस विचार को दृढ़ कर लेना तथा दूसरा - इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय की बात को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। तीसरा - भगवान के स्वरूप के माहात्म्य को भी खूब अच्छी तरह जान लेना चाहिए। माहात्म्य का विचार इस प्रकार करना कि, ‘पंचविषयों की रचना ही भगवान के द्वारा हुई है, अतः भगवान में उनसे भी अधिक सुख समाया हुआ है।’ उदाहरणार्थ, शब्द में केवल शब्द सम्बंधी सुख ही समाविष्ट है, किन्तु शेष चारों विषयों का सुख शब्द से नहीं मिलता। वैसे ही स्पर्श में स्पर्श का ही सुख प्राप्त होता है, लेकिन दूसरा प्राप्त नहीं होता; रूप में रूप सम्बंधी सुख प्राप्त होता है, दूसरा प्राप्त नहीं होता; ठीक वैसे रस एवं गन्ध में अपने-अपने सम्बंधी सुख ही प्राप्त होता है, परन्तु एक ही विषय में पांचों विषयों का सुख एकसाथ प्राप्त नहीं होता। और भगवान के स्वरूप में तो समस्त सुख एकत्र होकर रहते हैं। जैसे कोई केवल भगवान का दर्शन ही कर ले, तो भी वह भक्त पूर्णकाम हो जाता है। इसी तरह भगवान का स्पर्श आदि भी भक्त को पूर्णकाम करता है।

“और विषय सम्बंधी जो मायिक सुख है, वह नाशवान है किन्तु भगवान सम्बंधी सुख अखंड है। इस प्रकार भगवान के स्वरूप के माहात्म्य का विचार अत्यन्त सुदृढ़ रूप से करें। ये जो तीन विचार हैं, उनके माध्यम से विषयों में से आसक्ति मिट जाती है। जब विषयों से आसक्ति मिटती है, तब विषयों के अच्छे या बुरे होने का कोई भेद ही नहीं रह जाता। उस समय रूपवती या बदसूरत स्त्री दोनों एक समान प्रतीत होती हैं। ऐसी स्थिति में पशु, पक्षी, लकड़ी, कंडे, पत्थर और स्वर्ण को वह समान भाव से देखने लगता है परन्तु अच्छा पदार्थ देखकर उससे मोह नहीं होता। इस प्रकार जिसे पंचविषयों को भोगते हुए भी उनमें अच्छे या बुरे का बुद्धिभेद नहीं रहता, ऐसा आचरण करनेवाले पुरुष को निर्मोही कहा जाता है। श्रीकृष्ण भगवान ने यही बात गीता में कही है: ‘समलोष्टाश्मकाञ्चनः।’२१५

“जिनके ऐसे लक्षण हों, उनके सम्बंध में यह मान लेना कि उन्होंने भगवान के स्वरूप को तत्त्वतः जान लिया है। ऐसा साधक ही अनन्य भक्त है। और, पतिव्रता-रूपी भक्ति का अंग भी उन्हीं का है तथा ज्ञानी भी उन्हीं को जानना चाहिए। भगवान भी उन्हीं के उपर प्रसन्न होते हैं। ऐसे भक्त भगवान को अतिशय प्यारे लगते हैं। भगवान ने गीता में कहा है:

‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।’२१६

“अतः ऐसे पतिव्रता रूप भक्ति के गुणवाले जो भगवद्भक्त हैं, वे ही भगवान को अत्यन्त प्रिय हैं। ऐसी बात नहीं है कि पतिव्रता रूपी भक्ति के गुण कोई चतुर व्यक्ति ही सिद्ध कर पाता है। वस्तुतः जिसके हृदय में कल्याण की गरज़ हो, उन सभी को ऐसी भक्ति सिद्ध हो जाती है। इस संसार में भोली स्त्रियाँ पतिव्रता होती हैं और कुछ स्त्रियाँ चतुर होने पर भी व्यभिचारिणी होती हैं। अतः कोई चतुर हो या भोला - इसका कोई तालमेल भक्ति के मार्ग में नहीं होता। वह तो कल्याण की गरज़ रखनेवाला पतिव्रता रूपी भक्ति का गुण धारण करके भगवान की भक्ति करता है। जहाँ तक अच्छे और बुरे विषयों में समानबुद्धि होने का प्रश्न है, कोई भी व्यक्ति यह समझे कि, ‘एक ही दिन में मैं ऐसा कर लूँ और निर्मोही हो जाऊँ,’ परन्तु यह काम इतनी शीघ्रता से होना संभव नहीं है। वह तो धीरे-धीरे प्रयत्न करते रहने से ही हो सकता है। जैसे कुएँ का पानी खींचते हुए उसके किनारे पर लगे हुए पत्थर को भी रस्सी के नियमित घर्षण से काटने के निशान हो जाते हैं। ऐसे निशान यद्यपि लोहे की जंजीरों से भी एक ही दिन के घर्षण में कभी नहीं बनता! अतः कल्याण के लिए प्रयत्न करनेवाले को विषयों के प्रति रहनेवाली आसक्ति को मिटाने में व्याकुल और उद्विग्न मत होना। गीता में इसी बात का प्रतिपादन किया गया है कि: ‘अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।’२१७

“इसलिए, यह चिन्तन करते रहना कि, ‘इस जन्म में विषयों में जितनी आसक्ति मिट सकती है, मुझे उतनी मिटा देनी है। ऐसी साधना करते हुए भी यदि थोड़ी-बहुत आसक्ति रह गई, तो उसे दूसरे जन्म में मिटाना ही है; परन्तु हम तो भगवान के भक्त हैं, अतः हमें चौरासी लाख योनियों में नहीं जाना है।’ इस प्रकार भगवान के भक्त को हिम्मत के साथ धीरे-धीरे मोह की जड़ को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। और, जब तक अच्छे-बुरे विषयों में समता का भाव उत्पन्न न हो, तब तक भगवान का भक्त साधनदशावाला कहा जाता है। तथा जब श्रेष्ठ-कनिष्ठ विषयों में समता प्रतीत होती हो, तब वह भक्त सिद्धदशा को प्राप्त हो चुका है, ऐसा समझ लेना चाहिए। जब कोई भक्त विषयों के प्रति रहनेवाली आसक्ति का परित्याग करके सिद्धदशा को प्राप्त कर लेता है, तब उसे कृतार्थ हुआ मान लेना। और वेदों, शास्त्रों, पुराणों तथा इतिहास आदि ग्रंथों का यही निष्कर्ष है। हमने जो यह बात कही है, वह समस्त शास्त्रों का रहस्य है। अतः सभी हरिभक्त इस सिद्धांत को अपने हृदय में सुदृढ़ करके रखना।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १ ॥ १३४ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


२१३. सूर्यसिद्धान्त १२/४३, ७४ तथा सिद्धान्तशिरोमणि मध्यमाधिकार, कालमान अध्याय: १३/१४ में दो ध्रुवों का वर्णन किया गया है।

२१४. अर्थ: “विषयों के ध्याता पुरुष को विषयों में आसक्ति बढ़ती है, तब उसमें काम की उत्पत्ति हो जाती है। काम से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह पैदा हो जाता है। मोह से इन्द्रिय-विजय के लिए प्रारम्भ किए गए प्रयत्नों में सहायक स्मरणशक्ति नष्ट हो जाती है। स्मृतिभ्रंश होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है, अर्थात् आत्मज्ञान के लिए किए गए प्रयासों का नाश हो जाता है। बुद्धि के नष्ट होने से उसका विनाश हो जाता है, अर्थात् वह पुनः संसारचक्र में फँस जाता है।” (गीता: २/६२-६३)

२१५. अर्थ: “जिसको मिट्टी का पिंड, पत्थर और सुवर्ण तीनों समान हैं।” (गीता: १४/२४)

२१६. अर्थ के लिए देखिए: वचनामृत पंचाला ३ की पादटीप।

२१७. अर्थ के लिए देखिए: वचनामृत गढ़डा प्रथम १५ की पादटीप।

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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