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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

लोया १२

छः प्रकार के निश्चय

संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष कृष्णा नवमी (२९ दिसम्बर, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीलोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने गरम पोस की लाल बगलबंडी पहनी थी और श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष सभा में परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्त के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “भगवान सम्बंधी निश्चय दो प्रकार के हैं। एक सविकल्प तथा दूसरा निर्विकल्प। इन दो प्रकारों में भी उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ इस प्रकार तीन भेद हैं। इन दोनों को मिलाकर छः भेद हुए, उनके लक्षण पृथक्-पृथक् करके बताइए।” परन्तु परमहंस इस प्रश्न का उत्तर न दे सके।

तब श्रीजीमहाराज बोले, “सविकल्प१७६ निश्चय में कनिष्ठ भेद यह है कि जब तक भगवान अन्य मनुष्यों के समान काम, क्रोध, लोभ, स्वाद तथा मान आदि दोषों की प्रवृत्ति में प्रवृत्त होते हैं, तब तक भगवान सम्बंधी निश्चय रहता है, परन्तु मनुष्यों से भी अधिक कामादि के भाव प्रकट करते हैं, तो उसे निश्चय नहीं रहता।

“मध्यम भेद यह है कि जब भगवान मनुष्यों से दुगुने कामादि में स्वयं को प्रवृत्त दिखाएँ, तब तक उस निश्चय की दृढ़ता रहती है। उत्तम भेद यह है कि भगवान नीच जाति की तरह चाहे कैसा भी आचरण करें, अर्थात् भले ही वे मद्य, मांस, परस्त्रीसंग, क्रोध तथा हिंसामूलक आचरण क्यों न करें, तो भी उनकी क्रियाओं में उसे संशय नहीं होता, क्योंकि वह भक्त समझता है कि, ‘भगवान तो सर्वकर्ता हैं, परमेश्वर हैं तथा सबके भोक्ता भी हैं। इसलिए, जो-जो क्रियाएँ होती हैं, वे अन्वयभाव से नियन्ता रूप द्वारा समस्त प्राणियों में रहनेवाले भगवान से प्रवर्तमान होती हैं। ऐसी स्थिति में यदि वे नीचजनों के जैसी थोड़ी-सी क्रिया करते हैं, तो इससे उन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचती, क्योंकि वे तो सर्वकर्ता हैं।’ इस प्रकार वह भगवान में सर्वेश्वर-भाव मानता है। अतः उसे उत्तम सविकल्प निश्चयवाला भगवद्भक्त कहते हैं।

“अब निर्विकल्प कनिष्ठ भक्त की बात कहते हैं। ऐसे भक्त का लक्षण यह है कि वह भगवान को समस्त शुभाशुभ क्रियाएँ करते देखकर भी यह समझता है कि, ‘वे समस्त क्रियाएँ करने पर भी अकर्ता हैं, क्योंकि भगवान तो ब्रह्मरूप हैं। वास्तव में ब्रह्म तो आकाश के समान सबमें रहता है तथा सबकी क्रियाएँ उसमें ही होती हैं।’ इस प्रकार वह भगवान में ब्रह्मभाव जानता है। जैसे कि रासपंचाध्यायी में बताया गया है कि परीक्षित राजा ने शुकजी से पूछा कि, ‘धर्मरक्षक भगवान ने अवतार ग्रहण करके परस्त्री का संग क्यों किया?’ इसका उत्तर देते हुए शुकजी ने बताया कि, ‘श्रीकृष्ण तो अग्नि के समान हैं। वे जो कुछ शुभ-अशुभ क्रियाएँ करते हैं, वे सभी भस्म हो जाती हैं।’ इस प्रकार जो पुरुष भगवान को निर्लेपवत् ब्रह्मरूप जानता है, उसे कनिष्ठ निर्विकल्प निश्चयवाला भक्त कहते हैं। और जो भक्त श्वेतद्वीप में रहनेवाले षडूर्मिरहित निरन्नमुक्त के सदृश होकर वासुदेव की उपासना करता है, उसे मध्यम निर्विकल्प निश्चयवाला कहा जाता है।

“और अष्टावरणों से युक्त ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्मांड जिस अक्षर में अणु की भाँति प्रतीत होते हैं, ऐसा जो पुरुषोत्तम नारायण का धामरूप अक्षर है, उस अक्षर के रूप में स्वयं रहता हुआ जो पुरुषोत्तम की उपासना करता है, उसे उत्तम निर्विकल्प निश्चयवाला कहते हैं।”

तब चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा कि, “हे महाराज! इस प्रकार निश्चय के भेद किस प्रयोजन से हुए हैं?”

इसका उत्तर देते हुए श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जब कोई मुमुक्षु प्रारम्भ में गुरु के पास जाता है, तब उन वक्ता गुरु में उस मुमुक्षु को शुभ-अशुभ देश, काल, संग, दीक्षा, क्रिया, मन्त्र तथा शास्त्र आदि के कारण तथा अपनी श्रद्धा की मन्द-तीक्ष्ण भावना के कारण ऐसे भेद हो जाते हैं। इसलिए मुमुक्षु को हमेशा शुभ देशादि का सेवन करना चाहिए और वक्ता भी यदि शान्त तथा दोषरहित हो तभी उसी से ज्ञान-श्रवण करना चाहिए।”

फिर चैतन्यानन्द स्वामी ने पूछा, “कदाचित् किसी योग द्वारा यदि कनिष्ठ निश्चय हुआ हो, तो पुनः उसे उत्कृष्ट निश्चय होता है या नहीं?”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज बोले कि, “यदि श्रोता उत्कृष्ट श्रद्धावान हो, तथा उसे शुभ देशादि की प्राप्ति हो तथा उसे उत्कृष्ट ज्ञानी वक्ता मिल जाए, तो उसे सर्वोत्कृष्ट निश्चय हो जाता है, अन्यथा उसे जन्मान्तर के बाद उत्कृष्ट निश्चय होता है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १२ ॥ १२० ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१७६. यहाँ सविकल्प-निर्विकल्प शब्द लौकिक अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ। किन्तु उपास्य स्वरूप परमात्मा के स्वरूप में मायिक बुद्धि रखनेवाले को ‘सविकल्प निश्चयवाला’ है। और जिसे भगवत्स्वरूप में मायिक बुद्धि नहीं होती, वह निर्विकल्प निश्चयवाला है। निर्विकल्प निश्चय की उत्तरोत्तर अधिकता के अनुसार कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम भेद इस तरह दर्शाये गये हैं - कनिष्ठ निर्विकल्प निश्चयवाले को दस लोकों का नाश न हो, तब तक निश्चिय बना रहता है, लेकिन नैमित्तिक प्रलय में निश्चय नहीं रहता। मध्यम निर्विकल्प निश्चयवाले को श्वेतद्वीपादि धाम की स्थिति तक निश्चय रहता है, अर्थात् प्राकृत प्रलय तक निश्चय में स्थिरता रहती है; निर्विकल्प निश्चयवाला आत्यंतिक प्रलय में भी निर्विकार रहता है, उसका निश्चय कभी डिगता नहीं है। ऐसा भेद ‘सेतुमाला टीका’ में दर्शाया गया है।

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प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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