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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ७५

भक्त के सम्बंध से कल्याण

संवत् १८७६ में वैशाख कृष्णा एकादशी (८ मई, १८२०) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने पीले पुष्पों का हार कंठ में धारण किया था और श्वेत वस्त्र पहने थे। उनके समक्ष मुनियों तथा स्थान-स्थान के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब सुराखाचर ने पूछा कि, “ऐसा कहा गया है कि जिसके कुल में भगवान का एक भी भक्त होता है उसकी एकोत्तर१०६ पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है, किन्तु उस भक्त के गोत्र में सन्त तथा भगवान के कितने तो द्वेषीजन भी होते हैं, फिर भी उनका उद्धार होता है, वह कैसे होता है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जैसे देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ पतिरूप में भाव रखते हुए संग किया था, तो भी कर्दम ऋषि में स्नेह रहने के कारण उसका उद्धार हो गया। तथा सौभरि ऋषि का सुन्दर रूप देखकर ही उनके साथ मान्धाता राजा की पचास पुत्रियों ने विवाह किया। उन्हें सौभरि में कामभाव से स्नेह था, तो भी ऋषि के समान ही उन सबका कल्याण हो गया था। उसी प्रकार जिसके कुल में भक्त उत्पन्न होता है, उसके समस्त कुटुम्बीजन ऐसा समझते हैं कि, ‘हमारा यह बड़ा भाग्य है कि हमारे कुल में भगवान का भक्त हुआ है।’ इस प्रकार भक्त का माहात्म्य समझकर स्नेह रखेगा, तो उन सभी कुटुम्बीजनों का कल्याण हो जाएगा। और, जो पितृ आदि मरकर स्वर्ग में गए हों और वे भी यदि ऐसा समझें कि, ‘हमारे कुल में भगवान का भक्त हुआ है, यह हमारा बड़ा भाग्य है,’ ऐसा समझकर वे भगवान के भक्त से स्नेह रखें, तो उन पितरों का भी कल्याण हो जाता है। किन्तु, भगवान के भक्त के साथ जो वैरभाव रखता है, उसका कल्याण नहीं होता। वह ज्यों-ज्यों भगवान के भक्त के साथ वैर करता रहता है, त्यों-त्यों उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। तथा जब वह शरीर छोड़ता है, तब वह उसी नरककुंड को प्राप्त होता है, जहाँ पंचमहापाप करनेवाले पड़े रहते हैं। इसलिए, भगवान के भक्त से स्नेह रखनेवालों का कल्याण ही होता है, भले ही वे सम्बंधी हों या अन्य जन, सभी का कल्याण होता है।”

फिर नाजा भक्त ने पूछा कि, “भगवान के भक्तों में एक तो दृढ़ निश्चयवाला हो तथा दूसरा कम निश्चयवाला हो ये दोनों ऊपर से अच्छे भक्त लगते हैं, परन्तु उनकी यथार्थ पहचान किस प्रकार की जा सकती है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले, “जिसे आत्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो, दृढ़ वैराग्य हो, तथा भक्ति एवं स्वधर्म भी परिपूर्ण हो, उसके निश्चय को परिपूर्ण समझना और यदि इनमें से एक बात की भी कमी रहे, तो निश्चय होने पर भी वह माहात्म्य रहित है। अतः जिसमें ये चारों बातें संपूर्ण हों, तो यह समझ लेना कि उसमें माहात्म्यसहित भगवान का निश्चय दृढ़ रूप से है!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ७५ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


१०६. एकोत्तर शब्द से एकोत्तरशत (१०१) अथवा एकोत्तरविंशति (२१) कहने का अभिप्राय है। दस पूर्व के और दस बाद के कुलों तथा स्वयं के एक कुल को मिलाकर इक्कीस कुलों का उद्धार हो जाता है, ऐसा श्रीमद्भागवत में (७/१०/१८) भगवान नृसिंह ने कहा है। यह भी कहा गया है कि पिता के २४, माता के २०, भार्या के १६, भगिनी के १२, दुहिता के ११, बुआ के १०, मौसी के ८, इस प्रकार सात गोत्रों को मिलाकर १०१ कुलों का उद्धार हो जाता है। उल्लिखित माता-पिता आदि के कुलों में आधे पूर्व के और आधे बाद के समझने चाहिए। (निर्णयसिंधु: ३/२, पृ. २६७)

SELECTION
प्रकरण गढ़डा प्रथम (७८) सारंगपुर (१८) कारियाणी (१२) लोया (१८) पंचाळा (७) गढ़डा मध्य (६७) वरताल (२०) अमदावाद (३) गढ़डा अंत्य (३९) भूगोल-खगोल वचनामृतम् अधिक वचनामृत (११)

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