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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम ३७

जन्मभूमि की वासना; संत की पदवी

संवत् १८७६ में पौष कृष्णा चतुर्दशी (१४ जनवरी, १८२०) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के आगे नीमवृक्ष के नीचे पलंग पर पश्चिम की ओर मुखारविन्द करके विराजमान थे। उनके सिर पर सफ़ेद पाग थी, जिसमें पीले पुष्पों का तुर्रा लगा हुआ था। दोनों कानों पर सफ़ेद पुष्पों के गुच्छे लगे हुए थे और कंठ में पीले तथा श्वेत पुष्पों का हार था। उन्होंने सफ़ेद चादर ओढ़ी हुई थी और श्वेत धोती धारण की थी। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में मुनि तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

उस समय श्रीजीमहाराज ने कहा, “जो अज्ञानी हो और जिसने त्यागी का वेश धारण किया हो, उसे अपनी जन्मभूमि से स्नेह नहीं मिटता है।” इतना कहकर श्रीजीमहाराज सबको अपनी जाँघ पर बाल्यावस्था में वृक्ष की ठूँठ लग गयी थी, उसे दिखाकर बोले कि, “इस चिह्न को जब हम देखते हैं, तब हमें उस वृक्ष और तालाब की याद आ जाती है। इस प्रकार जन्मभूमि अपने परिवार एवं सम्बंधीजनों को हृदय से विस्मृत कर देना बड़ा कठिन है। अतः जिनको जन्मभूमि तथा देह के सम्बंधीजनों की याद न आती हो, वे बोलें। और, जो लज्जावश उसे छुपाएँगे, उन्हें श्रीनरनारायण की सौगंध है।”

बाद में सभी साधुओं ने अपनी-अपनी स्थिति बता दी।

उसे सुनकर श्रीजीमहाराज बोले, “जब स्वयं को आत्मारूप मानते हो, तब उस आत्मा की जन्मभूमि कैसी? उस आत्मा का सम्बंधी कौन? उस आत्मा की जाति भी कैसी? यदि सम्बंध ही बताना हो, तो पूर्वजन्मों में चौरासी लाख योनियों में देह को धारण किया था, उन सबका सम्बंध समान जानना चाहिए और यदि उन समस्त सगे-सम्बन्धियों के कल्याण की इच्छा हो, तो पिछले जन्मों के सभी सम्बंधियों के कल्याण की कामना करनी चाहिए! जैसे इस मनुष्यदेह में चौरासी लाख तरह के माता-पिताओं को अज्ञानवश भूल गए हैं, उसी प्रकार इस वर्तमान शरीर के माँ-बाप को ज्ञान द्वारा भुला देना चाहिए।

“हमारा तो किसी भी सगे-सम्बंधी के साथ स्नेह नहीं है। और, जो हमारी सेवा करते हैं, उनके हृदय में यदि परमेश्वर की भक्ति न हो, तो उनसे स्नेह करें तो भी हमें स्नेह नहीं होता है। और, यदि नारदजी के समान गुणवान हो, किन्तु उसमें भगवान की भक्ति न हो, वह हमें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।

“एवं, जिसके हृदय में भगवान की भक्ति हो और जो यह समझता हो कि, ‘जैसे (साकार रूप में) प्रकट भगवान पृथ्वी पर विराजित हैं और जैसे (साकार रूप में) भक्त उन भगवान के समीप बैठते हैं, वैसे के वैसे ही आत्यन्तिक प्रलय होने पर भी रहते हैं’ और ‘ये भगवान तथा भगवद्भक्त सदा साकार ही है,’ ऐसा समझता हो; तथा चाहे जैसे (शुष्क) वेदान्ती के ग्रन्थों को सुने, पर भगवान और भगवद्भक्तों को निराकार समझता ही नहीं; और वह ऐसा जाने कि, ‘भगवान के सिवा दूसरा कोई भी जगत का कर्ता है ही नहीं।’ तथा जो यह जानता हो कि, ‘भगवान की आज्ञा के बिना सूखा पत्ता भी हिलने में समर्थ नहीं हो पाता।’

“ऐसी जिसे भगवान में साकार भाव की दृढ़ प्रतीति हो, तो वह साधारण-सा५३ होगा, तो भी वही हमें पसन्द है। उस पर काल, कर्म तथा माया का हुक्म नहीं चलता। यदि उसे दण्ड देना हो, तो भगवान स्वयं देते हैं, किन्तु अन्य किसी का५४ हुक्म उस पर नहीं चलता। यदि ऐसी निष्ठा न हो, तो उसके त्याग-वैराग्ययुक्त रहने पर भी हमारे अन्तःकरण पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। तथा जिसके हृदय में भगवान की ऐसी अचल निष्ठा हो, वह चाहे जितने शास्त्र सुने अथवा चाहे किसी का भी संग करे, परन्तु भगवान में साकार-भाव की अपनी जो निष्ठा है, वह नहीं मिटती! वह भगवान को प्रकाश बिम्ब जैसे निराकार कभी समझता ही नहीं। ऐसी निष्ठावाले सन्त की चरणरज को हम भी सिर पर चढ़ाते हैं, और उसे दुःखी करने से मन में डरते हैं तथा उसके दर्शन के भी इच्छुक रहते हैं।

“ऐसी निष्ठा से विहीन जो जीव होते हैं, वे अपने साधनों के बल पर आत्मकल्याण की कामना करते हैं, परन्तु परमेश्वर के ऐसे प्रताप से अपने कल्याण की इच्छा नहीं करते हैं; ऐसे जड़मति पुरुष, बिना नौका के अपने बाहुबल से समुद्र पार करने की इच्छा करनेवाले मनुष्यों के समान मूर्ख हैं। दूसरी ओर जो भगवान के प्रताप से अपना कल्याण चाहते हैं, वे नाव में बैठकर समुद्र पार करने की इच्छा रखनेवाले पुरुषों के समान बुद्धिमान हैं।

“और, भगवान के स्वरूप का ऐसा ज्ञानवाले जो भक्त हैं, वे सब देह त्याग के बाद भगवान के धाम में चैतन्यमूर्ति५५ होकर भगवान की सेवा में रहते हैं। जिसकी ऐसी निष्ठा न हो, परन्तु यदि उसने अन्य साधन अपनाये हों, तो वह अन्य देवों के लोक में रहता है।

“और जो भगवान के यथार्थ भक्त हैं, उनका दर्शन तो भगवान के दर्शन के समान है। एवं उनके दर्शन में तो अनेक पतित जीवों का उद्धार होता है, ऐसे ये महान हैं।”

इस प्रकार की वार्ता करने के बाद श्रीजीमहाराज बोले कि, “अब भजन गाएँ।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ ३७ ॥

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This Vachanamrut took place ago.


५३. सांसारिक दृष्टि से मंदबुद्धि एवं गरीब स्वभाववाला।

५४. यमराज आदि का।

५५. अक्षरब्रह्ममय दिव्य शरीर से युक्त।

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