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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

अहमदाबाद ५

अहमदावाद ५

संवत् १८८२ में फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी (२७ मार्च, १८२६) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्री अहमदाबाद-स्थित श्रीनरनारायण मन्दिर से उत्तरवर्ती वेदिका पर बिछाए गए पलंग पर गद्दी-तकिये का आधार लेकर विराजमान थे। उन्होंने सभी श्वेत वस्त्र धारण किए थे। कंठ में गुलाब का बड़ा हार सुशोभित हो रहा था। पाग में पुष्पों का तुर्रा लटक रहा था। श्रीजीमहाराज दाहिने हाथ में तुलसी की माला फेर रहे थे। उनके समक्ष बड़ेमें बड़े मुनियों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

उस समय कुबेरसिंहजी छड़ीदार ने श्रीजीमहाराज से प्रश्न किया कि, “हे महाराज! श्रीपुरुषोत्तम भगवान का असाधारण लक्षण क्या है?”

तब श्रीजीमहाराज बोले कि, “अनेक जीवों के प्राण एवं नाड़ी को खींचकर उन्हें तत्काल समाधिस्थ कराना यह अन्य किसी से नहीं हो सकता, और लक्षावधि मनुष्यों के द्वारा नियमों का पालन कराकर उन्हें अपने वश में रखना यह भी अन्य किसी के बस की बात नहीं है, तथा अक्षरादि मुक्तों को भी नियमबद्ध रखने की क्षमता रखना, यह सामर्थ्य भी अन्य किसी में संभव नहीं है। अतः ये ही श्रीपुरुषोत्तम भगवान के असाधारण लक्षण हैं।”

तब कुबेरसिंहजी ने पुनः प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! ब्रह्मांड तो असंख्य कोटि हैं, तथा भगवान का अवतार तो इस ब्रह्मांड में जम्बुद्वीप के भरतखंड में ही होता है, तब अन्य ब्रह्मांडों में रहनेवाले असंख्य जीवों का उद्धार भगवान किस रीति से करते होंगे? कृपया यह बताइए।”

यह सुनकर श्रीजीमहाराज कहने लगे कि, “जो भगवान इस ब्रह्माण्ड में विराजते हैं, वे ही भगवान सबके स्वामी हैं, तथा अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों में असंख्य जीवों के कल्याण के लिए प्रत्येक ब्रह्माण्ड में वे ही भगवान स्वयं देह धारण करते हैं। उनकी शरण में असंख्य जीव आते हैं। इसके फलस्वरूप अनेक जीव अक्षरधाम में श्रीपुरुषोत्तम भगवान के चरणारविन्दों को प्राप्त होते हैं। इस प्रश्न का यही उत्तर है।”

फिर कुबेरसिंहजी ने आगे पूछा कि, “हे महाराज! भगवान को जाननेवाले सत्संगीजनों को क्या-क्या छोड़ देना चाहिए और क्या-क्या ग्रहण करना चाहिए? यह बताइए।”

तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “मायिक पदार्थों की आशा तो सब प्रकार से छोड़ देना, तथा भगवान सम्बंधी आशा को ही ग्रहण करना। यदि धनलिप्सा हो, तो ऐसी आशा रखना कि भगवान के धाम में स्वर्ण, मुहरें, हीरा, रत्न, माणिक आदि अमूल्य पदार्थ बहुत बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं। यदि हम भगवान का भजन करेंगे, तो ये सब पदार्थ हमें प्राप्त हो जाएँगे। किन्तु, मुझे तो मायिक पदार्थों की आशा नहीं रखनी है। यदि स्त्री सम्बंधी कामना हो, तो यह विचार करें कि परस्त्री के प्रति यदि कुदृष्टि रखेंगे, तो चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ेगा, और वहाँ घोर यातनाएँ सहन करनी पड़ेंगी। विषयभोगों में तो कुत्ते व गधे भी लिप्त रहते हैं, और मुझे तो प्रकट पुरुषोत्तम मिले हैं, यदि वे अप्रसन्न होंगे, तो बड़ी हानि होगी। ऐसा विवेक रखकर कामवासना का परित्याग कर दें और भगवान सम्बंधी सुख को ही ग्रहण करें। यदि देह के सम्बंधीजनों में प्रीति रही हो, तो उस प्रीति का त्याग करना, और भगवान के दास-सन्तजनों से प्रीति करना। यदि देह में अहंबुद्धि रहे, तो उसे छोड़कर भगवान के प्रति दासत्व बुद्धि रखना।

“यदि भगवान अथवा सन्त अपने से किसी भी रीति से अप्रसन्न हुए हों, उन्होंने अपना तिरस्कार किया हो और इस कारण अपने हृदय में भगवान एवं सन्त के प्रति कोई दुर्भावना उत्पन्न हो गयी हो, तो मन में से उस अवगुण का त्याग कर देना, और अपनी भूल का स्वीकार कर लेना तथा भगवान और सन्त का गुण ग्रहण करना। इस प्रकार सकारात्मक से चिन्तन करना, किन्तु विपरीत विचार तो कभी भी नहीं करना। यही इस प्रश्न का उत्तर है।”

फिर कुबेरसिंहजी ने पुनः प्रश्न पूछा कि, “हे महाराज! कृपया यह बताइए कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का कैसा स्वरूप रहता है?”

तब श्रीजीमहाराज मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए बोले कि, “अर्थ का स्वरूप यह है कि जिसके द्वारा धन एकत्र किया जाए, अथवा मोक्ष सम्बंधी अपना अर्थ सिद्ध करना हो, यह भी ‘अर्थ’ का स्वरूप है। धर्म का स्वरूप तो यह है कि धन का व्यय धर्म के लिए सत्संग में ही किया जाए, किन्तु कुमार्ग में कहीं भी इसे खर्च नहीं करे। काम का स्वरूप यह है कि विवाह करके एक ही स्त्री के साथ सम्बंध रखना। उसका भी केवल ऋतुकाल में ही संग करना। एवं जगत की अन्य स्त्रियों को माता, बहन और पुत्रीतुल्य मानकर मन में त्यागवृत्ति रखना। मोक्ष का स्वरूप यह है कि सत्संग सम्बंधी व्रतों का पालन सावधान रहकर करे तथा भगवान के स्वरूप के सम्बंध में अचल निश्चय रखना। इन चारों का स्वरूप इस प्रकार है।”

ऐसा कहने के पश्चात् श्रीजीमहाराज शयन के लिए पधारे।

॥ इति वचनामृतम् ॥ ५ ॥ २६५ ॥

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