॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
गढ़डा अंत्य ३१
छाया के दृष्टांत से ध्यान
संवत् १८८५ में माघ शुक्ला चतुर्थी (७ फरवरी, १८२९) को सायंकाल श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में पश्चिमी द्वार के कमरे के बरामदे में पलंग पर विराजमान थे। उन्होंने सिर पर सफ़ेद फेंटा बाँधा था, श्वेत धोती धारण की थी और लाल पल्ले की विलायती सफ़ेद धोती को ओढ़ रखा था। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय परमहंस वाद्ययन्त्रों के साथ ‘हरि मेरे हारल की लकरी’२९१ यह कीर्तन गा रहे थे। श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “‘जमुना के तीर ठाड़ो’२९२ यह कीर्तन भी गाइए।”
जब परमहंस यह कीर्तन करने लगे, उस समय श्रीजीमहाराज बहुत देर तक विचार करते रहे। इसके पश्चात् वे कहने लगे, “अब कीर्तन बन्द करें। हम एक वार्ता कहते हैं। वह वार्ता है तो छोटी-सी, परन्तु ध्यान करनेवालों को बहुत अच्छी लगेगी। यह बात हमने कभी भी नहीं कही है।”
इसके पश्चात् वे पुनः कुछ क्षणों के लिए ध्यानस्थसे हो गये और फिर कुछ पलों के बाद कहने लगे कि, “कोटि-कोटि चन्द्र, सूर्य और अग्नि के समान तेज का समूह है, और तेज का वह समूह समुद्रसा दिख रहा है; ऐसा भगवान का तेजोमय जो ब्रह्मरूप धाम है, उसी में जो पुरुषोत्तम भगवान साकार रूप से बिराजमान रहते हैं। और, वे भगवान अपने उसी रूप से अवतार लेते हैं। वे भगवान कैसे हैं? तो वे क्षर-अक्षर से परे हैं और समस्त कारणों के भी कारण हैं, और जिनके चरणकमल की सेवा में अक्षररूप अनन्त कोटि मुक्त रह रहे हैं। वही भगवान स्वयं दया करके जीवों के परम कल्याण के लिए अभी प्रकट प्रमाणरूप में आप सबके दृष्टिगोचर होते हुए साक्षात् रूप से विराजमान हैं। अतः उस धाम में स्थित मूर्ति एवं श्रीकृष्ण की (हमारी) इस प्रकटमूर्ति में अधिक सादृश्य है।
“उस श्रीकृष्ण की मनुष्याकार मूर्ति के ध्यान करनेवाले की दृष्टि भगवान के सिवा अन्य विषयों में से अतिशय वैराग्य को प्राप्त कर लेती है और वह भक्त केवल भगवान के आकार में ही लुब्ध रहता है, तब उसे प्रत्यक्ष भगवान की मूर्ति एवं धाम की मूर्ति, उन दोनों में तनिक भी अन्तर नहीं दिखता। उन दोनों मूर्तियों के रूप तथा अवस्था दोनों समान दिखती है। तथा वह मूर्ति जितनी ऊँची एवं पुष्ट दिखती है, वैसी कि वैसी यह प्रत्यक्षरूप मूर्ति भी दिखती है, परन्तु दोनों में रोम मात्र का भी अंतर नहीं दिखता। दोनों में रूप, अवस्था आदि में भारी समानता दिखती है। इस प्रकार ध्यान में दिखनेवाली मूर्ति तथा प्रत्यक्ष मूर्ति दोनों में थोड़ा सा भी भेद नहीं है। ध्यानकर्ता साधक उसी मूर्ति को प्रतिलोभ द्वारा अपने नेत्र के भीतर देखता है, तब वही मूर्ति उसे पहले की भाँति नहीं दिखती, परंतु नेत्र की पुतली से आकार की दिखती है, फिर वह ध्यान कर्ता साधक प्रतिलोम द्वारा कंठ से नीचे तक, हृदय में ध्यान करके देखता है, तब उसी मूर्ति को वह पूर्ववत् (छोटी) न देखते हुए अत्यंत विशाल, ऊँची, मोटी एवं भयंकर देखता है।
“जैसे मध्याह्न समय में सूर्य की छाया पुरुष के शरीर के ही आकार की होती है, सूर्यास्त के समय छाया लम्बी हो जाती है, परंतु पुरुषाकार नहीं रहती, उसी प्रकार मूर्ति का आकार भी पूर्वकथन के अनुसार विराट हो जाता है। फिर वह ध्यानकर्ता उस मूर्ति को हृदयस्थ बुद्धि में देखता है, तथा बुद्धि में रहनेवाली जीवात्मा में देखता है, तब तो वही मूर्ति उसे अंगुष्ठमात्र आकार की दिखती है, अथवा द्विभुज या चतुर्भुज दिखती है, परंतु पहले तीन प्रकार से देखी थी, वैसी नहीं दिखती।
“तत्पश्चात् उस ध्यानकर्ता को प्रतिलोम भाव से अपनी जीवात्मा से परे, कोटि कोटि सूर्य, चंद्र, अग्नि के तेज के समूह में वह मूर्ति दिखती है, वह उसे वैसी की वैसी ही दिखाई देती है, जैसी उसे दृष्टि के समक्ष दिखाई देती थी, उन दोनों में तनिक भी अंतर नहीं दिखता। अतः गुणातीत जो अक्षरधाम है, वहाँ जो मूर्ति है, वही मूर्ति प्रत्यक्ष है, उन दोनों में कोई भेद नहीं। जैसे धाम की मूर्ति गुणातीत है, उसी तरह मनुष्य मूर्ति भी गुणातीत है। तथा पहले जिस मूर्ति में अंतर दिखा, वह तो जीवात्मा के गुणमय स्थानक होने के कारण ऐसा हुआ था। अतः नेत्र में सत्त्वगुण, कंठ में रजोगुण एवं बुद्धि में रहनेवाली जीवात्मा भी गुणामय है।”
इतना कहकर श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “अब उस कीर्तन का गान करें, जो पहले गा रहे थे।”
इस प्रकार श्रीजीमहाराज ने अपने पुरुषोत्तम स्वरूप के निरूपण की वार्ता परोक्षभाव से कही।
॥ इति वचनामृतम् ॥ ३१ ॥ २५४ ॥
This Vachanamrut took place ago.
२९१. कवि सूरदास रचित भक्तिपद, देखें: परिशिष्ट: ६
२९२. स्वामी प्रेमानंदजी रचित भक्तिपद, देखें: परिशिष्ट: ६