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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा प्रथम १६

विवेकशीलता

संवत् १८७६ में मार्गशीर्ष कृष्णा चतुर्थी (५ दिसम्बर, १८१९) को श्रीजीमहाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके मुखारविन्द के समक्ष सभा में साधु तथा स्थान-स्थान के हरिभक्त बैठे थे।

श्रीजीमहाराज ने कहा, “भगवान के जिस भक्त को सत्-असत् का विवेक होता है, वह अपने में विद्यमान दोषों को जान लेता है और विचार करके उन अवगुणों का परित्याग करता है। यदि सन्त में अथवा किसी सत्संगी में स्वयं को कोई दोष होने का आभास हो, तो वह उसका त्याग कर देता है और केवल उसके गुण को ही ग्रहण करता है। और उसे परमेश्वर के स्वरूप में तो कोई दोष का आभास ही नहीं होता। और भगवान तथा सन्त जो कुछ भी कहें, उसे परम सत्य मानकर उनके वचनों में कभी संशय नहीं करता। यदि सन्त यह कहें कि, ‘तुम देह, इन्द्रियों, मन और प्राण से भिन्न हो, सत्य हो और इन सभी के ज्ञाता हो और ये देहादिक सब असत्य हैं।’ इन वचनों को सत्य समझकर उन सबसे अलग रहकर वह आत्मरूप में व्यवहार करे, परन्तु मन के कुसंकल्पों के चक्कर में न फँस जाए। और जिसके कारण स्वयं को बन्धन हो तथा अपने एकान्तिक धर्म में बाधा पड़ती हो, ऐसे पदार्थों तथा कुसंग से सुविदित रहे, तथा उनसे दूर ही रहे, और कभी उनके बंधन में न फँसे। और एकांतिक धर्म में पुष्टिकर्ता विचार को ही ग्रहण करे तथा उसके विरुद्ध विचार का परित्याग कर दे। इस प्रकार का जिसमें आचरण हो, तो समझ लें कि उसमें ‘विवेक’ है।”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १६ ॥

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