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॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥

परब्रह्म पुरुषोत्तम

भगवान श्रीस्वामिनारायण के

॥ वचनामृत ॥

गढ़डा मध्य १५

स्वभाव पर शत्रुभाव

संवत् १८७८ में भाद्रपद शुक्ला द्वितीया (२९ अगस्त, १८२१) को स्वामी श्रीसहजानन्दजी महाराज श्रीगढ़डा-स्थित दादाखाचर के राजभवन में श्रीवासुदेव नारायण के मन्दिर के बरामदे में गद्दी बिछवाकर विराजमान थे। उन्होंने श्वेत वस्त्र धारण किए थे। उनके समक्ष मुनि तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।

तब श्रीजीमहाराज ने समस्त परमहंसों से प्रश्न पूछा कि, “चाहे कैसा ही जड़ स्वभाव हो, किन्तु मात्र एक विचार करने से उस स्वभाव का नाश हो जाए तथा उस विचार को छोड़कर दूसरे सहस्रों विचार करें, फिर भी वह बुरा स्वभाव नहीं मिटे, ऐसा एक कौन-सा विचार है? इस बात पर आप जो समझ रहे हैं, वैसा कहें।”

तत्पश्चात् परमहंसों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया, परन्तु यथार्थ उत्तर किसी से भी संभव नहीं हुआ। तब श्रीजीमहाराज ने कहा, “चलिये, मैं ही इसका उत्तर देता हूँ।” इतना कहकर उन्होंने बताया कि, “जैसे कोई शत्रु हमारा बनता हुआ काम बिगाड़ दे अथवा हमारी माता और बहन को गालियाँ दे, तब उस पर हमें अत्यधिक क्रोध आता है। प्रतिकार स्वरूप हम जिस उपाय द्वारा उसका अनिष्ट हो, वैसा ही उपाय करने लगते हैं अथवा कोई अन्य व्यक्ति उस शत्रु का कुछ भी बुरा करे, तो हमें अत्यन्त ही प्रसन्नता होती है। वैसे ही जो मोक्ष के लिए यत्न कर रहा हो, ऐसे समय में यदि काम-क्रोधादि आन्तरिक शत्रु विघ्न डालें, तो उन दोषों के प्रति भी उसे वैसी ही वैर बुद्धि हो जाए तथा उनको मिटा देने की खटक मन से कभी मिटे ही नहीं, ऐसे विचार जिसके हृदय में सुदृढ़ हो, उसी विचार द्वारा स्वभावरूपी शत्रु को वह मिटा सकता है। और, जब कोई सन्त उन कामादि शत्रुओं की निन्दा और भर्त्सना करे, ऐसे समय में जिसे पूर्वोक्त विचार हों, उसे उस सन्त के प्रति कोई दुर्भाव नहीं होता। बल्कि वह, उस साधु का अधिक से अधिक गुण-ग्रहण करता रहता है कि, ‘ये साधु मेरे शत्रुओं को मिटाने का उपाय करते हैं, इसलिए ये मेरे परम हितैषी हैं।’ इस प्रकार का विचार जिसके हृदय में रहा करता हो, तो वह शत्रुमात्र का नाश कर डालता है तथा कोई बुरा स्वभाव उसके हृदय में रह नहीं सकता। इसके अतिरिक्त चाहे जितने भी प्रकार के विचार किये जाएँ, किन्तु उनसे उसके कामादिक स्वभावरूपी शत्रु नहीं नष्ट होते। इसलिए ऐसे स्वभाव के प्रति शत्रुभाव रखना ही समस्त विचारों में श्रेष्ठ विचार है।”

इस वार्ता के पश्चात् श्रीजीमहाराज ने पुनः प्रश्न किया कि, “जो भक्त धर्म, वैराग्य, आत्मज्ञान तथा माहात्म्यसहित परमेश्वर की भक्ति की साधना से कभी भी च्युत न हो, ऐसे दृढ़ भक्त की पहचान किन लक्षणों से संभव होती है?”

फिर सभी सन्तों में से जिसे जैसा समझ में आया, उसने वैसा बताया, किन्तु कोई भी इसका यथार्थ उत्तर न दे सका। तब श्रीजीमहाराज ने कहा कि, “जिसका बाल्यावस्था से ही ऐसा स्वभाव हो कि वह किसी के भी प्रभाव में आकर दबे नहीं और जहाँ वह बैठा हो, वहाँ कोई भी व्यक्ति हँसी-मज़ाक न कर सके तथा उसे कोई तुच्छ वचन भी न कह सके, ऐसे लक्षण जिसके भी हों, वह धर्म, वैराग्य, ज्ञान एवं भगवान की भक्ति से कभी भी च्युत नहीं हो सकता। यदि कदाचित् अहंकारियों के समान ही उसका स्वभाव दीखता हो, परन्तु उसे कल्याण की गरज़ होती है, अतः वह सत्संग से कभी भी भ्रष्ट नहीं हो सकता!”

॥ इति वचनामृतम् ॥ १५ ॥ १४८ ॥

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