Show Shravan Audio
॥ श्री स्वामिनारायणो विजयते ॥
परब्रह्म पुरुषोत्तम
भगवान श्रीस्वामिनारायण के
॥ वचनामृत ॥
लोया ६
संग-शुद्धि
संवत् १८७७ में मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा (६ दिसम्बर, १८२०) को श्रीजीमहाराज लोया ग्राम-स्थित भक्त सुराखाचर के राजभवन में रात के समय विराजमान थे। उन्होंने श्वेत धोती धारण की थी। सफ़ेद छींट की बगलबंडी पहनी थी, श्वेत फेंटा मस्तक पर बाँधा था और अन्य सफ़ेद फेंटा मस्तक से आकंठ बाँधा था। उस सफ़ेद फेंटे का छोर सिर पर लटक रहा था और उन्होंने सूती शाल ओढ़ी हुए थी। उनके समक्ष परमहंसों तथा विभिन्न प्रान्तों के हरिभक्तों की सभा हो रही थी।
उस समय श्रीजीमहाराज ने परमहंसों से प्रश्न किया, “सत्संग होने के पश्चात् दुर्लभ से भी दुर्लभ साधन कौन-सा है?” परमहंस इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे सके।
तब श्रीजीमहाराज ने यह उत्तर दिया, “सत्संग होने के बाद एकांतिकभाव सिद्ध करना वास्तव में अति दुर्लभ बात है। वह एकांतिक भाव क्या है? तो धर्म, ज्ञान एवं वैराग्य इन तीनों सहित भगवान की भक्ति करना एकान्तिकपन है।”
श्रीजीमहाराज ने पुनः पूछा कि, “धर्म सम्बंधी साधनों में ऐसा कौन-सा साधन है, जो रखने से समस्त धर्म रहते हैं तथा भगवान सम्बंधी भजन, स्मरण, कीर्तन और वार्ता आदि साधनों में ऐसा एक साधन कौन-सा है कि आपत्काल में समस्त साधनों के चले जाने पर इस एक ही साधन के रहने पर सभी साधन अक्षुण्ण बने रहते हैं?”
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयमेव दिया, “धर्म सम्बंधी साधनों में यदि एक निष्काम वर्तमान (ब्रह्मचर्य) बना रहे, तो समस्त साधन स्वतः सुलभ हो जाते हैं। भगवान सम्बंधी साधन में यदि भगवान के स्वरूप का निश्चय रहे, तो सभी साधन अपने आप चले आते हैं।”
फिर श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “कैसी मति को सुदृढ़ रखने से कल्याण होता है और उस मति में परिवर्तन करते हैं, तो बुरा होता है? तथा कैसी मति को बारंबार परिवर्तन करने पर हित होता है और उस मति को बार-बार परिवर्तन न करने से बुरा होता है?”
तब श्रीजीमहाराज ने इस प्रश्न का भी स्वयं उत्तर दिया कि, “भगवान के स्वरूप के निश्चय सम्बंधी मति को कभी भी विचलित नहीं होने देना चाहिए। भगवान के माहात्म्य को सुनकर बार-बार उसे पुष्ट करते रहने से ही कल्याण होता है। और भगवान के स्वरूप के निश्चय को बार-बार बदले जाने से भक्त का बुरा ही होता है। तथा, अपने मन से स्वयं निश्चय किया हो कि, ‘मुझे ऐसा करना है,’ उस मति को सन्त के वचन से बार-बार बदल देना चाहिए तथा सन्त यह कहें कि, ‘यहाँ नहीं बैठना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए,’ तो उस स्थान पर न तो बैठना चाहिए और न तो वैसा काम ही करना चाहिए। इस प्रकार मति को बदलते रहने से कल्याण होता है और मनमानी करने से बुरा होता है।”
तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “किस प्रकार के सत्संगी अथवा परमहंस हों, जो पूर्णतः धर्माचरण करते हों, फिर भी उनके पास बैठने और उनकी बातें सुनने से दोष लगता है?”
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं ही दिया, “जिसको भगवान का निश्चय हो और जो धर्माचरण में तत्पर रहता हो, किन्तु यदि उसे संसार-व्यवहार में आसक्ति रहती हो, तथा वह देहाभिमानी हो, तथा अहंकार हो और भगवान तथा सन्त उसकी प्रकृति का खंडन करे, तो वह भगवान एवं संत के प्रति अवश्य अवगुण देखने लगेगा, तथा दूसरों को भी भगवान तथा सन्त के अवगुणों की बातें करके उसे भी भगवान से विमुख के समान कर देगा! यदि ऐसा व्यक्ति हो, तो उससे किसी प्रकार का सम्बंध नहीं रखना चाहिए, यदि सम्बंध रखता है, तो उसका बुरा परिणाम मिलता है।”
पुनः श्रीजीमहाराज ने प्रश्न पूछा कि, “ऐसा कौन-सा साधु है, जो धर्माचरण भी संपूर्ण रखता हो तथा भगवान सम्बंधी निश्चय भी दृढ़ रखता हो, फिर भी उसके साथ न तो स्नान करने जाना चाहिए, न तो उसके पास अपना बिछौना बिछाना चाहिए और न ही उसकी बात सुननी चाहिए?”
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि, “ऐसे सन्त का समस्त प्रकार से त्याग करना चाहिए, जो साधना-मार्ग से हतोत्साहित करने की बातें करता हो कि, ‘क्या एक ही जन्म में निष्कामादि गुण सिद्ध होते हैं? ये तो भगवान की कृपा से ही सिद्ध होते हैं। अन्यथा इस एक जन्म में क्या, ऐसे कई जन्म लेने पड़ेंगे, इसे सिद्ध करने में! अन्यथा क्या इसी जन्म में कल्याण संभव है? कभी नहीं!’ इस प्रकार जो बिना हिम्मत की बातें करते हैं, उसका संग प्रत्येक प्रकार से त्याग कर देना चाहिए। लेकिन जो यह कहता हो कि, ‘इसी जीवन में हम कृतार्थ हो चुके हैं तथा काम, क्रोध, मद, मत्सर, मान आदि दोषों का क्या सामर्थ्य है? भगवान तथा सन्त के प्रताप से इन सबका नाश कर देंगे!’ ऐसा कहता हो तथा कामादि दोषों के नाश करने के उपाय में तत्परतापूर्वक जुटा हुआ हो, ऐसे सन्त का संग प्रत्येक प्रकार से करना।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “ऐसा कौन-सा साधु है, जो हिम्मतपूर्वक बातें करता हो, फिर भी उसका त्याग कर डालना चाहिए?”
श्रीजीमहाराज ने स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा, “जो सन्त केवल अपने पुरुषार्थ का ही अधिक वर्णन किया करता हो, तथा पुरुषार्थ से ही स्वयं को कृतार्थ मानता हो, परन्तु भगवान के कर्तृत्व का बल न रखता हो और यह न जानता हो कि, ‘इन साधनों द्वारा भगवान को प्रसन्न करना है,’ उस सन्त का भी परित्याग कर देना।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “कैसे साधु का संग करना, तथा कैसे सन्त का संग नहीं करना?”
इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि, “जो सन्त सावधान होकर व्रतपालन करता हो, भगवान के स्वरूप का निश्चय भी सुदृढ़ हो, फिर भी जो अपने साथ रहनेवाले साधुओं को उनके दोषों के लिए टोकता न हो, बल्कि उन्हें सहेज-संभालकर रखा करता हो तथा शिथिलता रखता हो, ऐसा सन्त चाहे मुक्तानंद स्वामी के समान लौकिक दृष्टि से महान कहलाता हो, परन्तु उसका भी संग नहीं करना चाहिए। परन्तु जो सन्त साथ में रहने पर अपने को टोका करे तथा जो भी दोष देखे उस पर नियंत्रण रखता हो और जब तक यह दोष न मिट जाए तब तक उपदेश देता रहे, लेकिन लल्लोचप्पो न रखे, वह यदि लौकिक व्यवहार में भले ही बड़ा न कहलाता हो, फिर भी उसका संग करते रहना चाहिए।”
तत्पश्चात् श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “यदि किसी सन्त में भक्तिज्ञानादि समस्त महान गुण हों, परन्तु ऐसा कोई एक दोष कौन-सा होता है, जिसके कारण उस सन्त का संग नहीं करना चाहिए?”
तब उन्होंने स्वयं प्रश्न का उत्तर दिया कि, “उस सन्त का कभी भी संग नहीं करना चाहिए, जिसमें घोर आलस्य हो तथा निद्रा भी बहुत हो और जब कोई उससे स्नान-ध्यानादि नियमों का पालन करने की बात करे, तो वह कहने लगता हो कि, ‘अभी कर लूँगा, शीघ्रता क्या है, धीरे-धीरे होगा!’ ऐसा बोलनेवाला सन्त भले ही बहुत सज्जन क्यों न हो, फिर भी उसका संग नहीं करना चाहिए।”
श्रीजीमहाराज ने पुनः प्रश्न किया, “ऐसे संत की वाणी में ऐसा कौनसा दोष होता है कि वह चाहे कितनी ही अच्छी बातें करता हो, फिर भी उसकी बातें नहीं सुननी चाहिए?”
इसका उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि, “जो सन्त बात करते समय अपने में विद्यमान भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और धर्म उन्हीं गुणों की अहंकारपूर्वक डींग मारता रहे तथा अन्य सन्त के ज्ञान, भक्ति आदि गुणों को कुछ न्यून करके बताए, ऐसा दोष जिसकी वाणी में हो, उसकी बातें नहीं सुनें।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “जिसकी वाणी कठोर-कुत्सित लगे, फिर भी उस वाणी का अमृत के सदृश पान करें, ऐसी वाणी कौन-सी है?”
इसका उत्तर भी उन्होंने दिया कि, “जो सन्त बातें करते समय अपने सम्बंधी, माता-पिता, बहन, भाई और अपनी जाति आदि की कठोर शब्दों में निन्दा करता हो, उसकी वाणी को अच्छी मानना चाहिए। वह इसलिए कि जो भी यह सुनेगा, उसे सन्त के प्रति यह शुभ धारणा बनेगी कि, ‘इस सन्त को अपने दैहिक सम्बंधियों के साथ किसी भी तरह से आसक्ति नहीं है।’ इसलिए इस वाणी का अमृतवत् पान करना चाहिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “किस स्थान पर मान रखना चाहिए और किस स्थान पर नहीं रखना चाहिए?”
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने स्वयं दिया कि, “भगवान का दृढ़ आश्रित हो और वह साधारण-सा दीन हरिभक्त हो, तो भी उसके समक्ष अहं-मान नहीं रखना चाहिए। किन्तु, जिसका मन सत्संग से कुछ मुकर गया हो, उसके सामने स्वाभिमान रखना चाहिए, लेकिन उसके आगे किसी भी प्रकार से झुकना नहीं चाहिए। इसके साथ ही सत्संग के सम्बंध में अनुचित चर्चा होने पर उसका दृढ़तापूर्वक प्रतिवाद करना चाहिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “भगवान के दर्शनादि तथा सन्त के प्रति कब स्नेह नहीं रखना चाहिए और कब स्नेह रखना चाहिए?”
फिर उन्होंने स्वयं बताया कि, “यदि हम समस्त साधुओं से सामान्यतः यह बात कहें कि, ‘बुरहानपुर और काशी कौन जाएगा?’ तब अगर कोई बोले नहीं, तो अन्य किसी भी साधु को उस सभा में उठकर हमसे यह निवेदन करना चाहिए कि, ‘हे महाराज! यदि आप आज्ञा करें, तो मैं चला जाऊँ?’ ऐसा कहकर और हमारी आज्ञा लेकर वहाँ जाना चाहिए। ऐसे समय पर हमारी प्रसन्नता के लिए हमारे दर्शनादि तथा सन्त-समागम के प्रति स्नेह नहीं रखना चाहिए। यदि हमने अथवा साधुओं ने किसी की उपेक्षा की हो, डाँट-फटकार करके उसे सत्संग से बाहर कर दिया हो, उस शोक से वह रुदन करता हो, तब कोई एकड़मल (सत्संग से बाहर होकर विचरण करनेवाला साधु) विमुख जैसा कोई उसके पास जाकर हमारे अथवा संतों के विरुद्ध अवगुण की बातें करने लगे, तब वह (उपेक्षित) उस विमुख के पास सन्त तथा भगवान के प्रति अधिक प्रेम जताए एवं उसे इस प्रकार कहे कि, ‘मैं तो उनका बिका हुआ दास हूँ, इसलिए यदि वे मेरे टुकड़े-टुकड़े भी कर डालेंगे, तो भी मैं उनका अवगुण ग्रहण नहीं करूंगा। वे मेरे कल्याणदाता है।’ इस प्रकार वहाँ अतिशय स्नेह प्रकट करना चाहिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “वह कौन-सा कार्य है, जो करने से भगवान प्रसन्न होते हैं, तो भी नहीं करना चाहिए और वह कौन-सा कार्य है, जो करने से भगवान अप्रसन्न होते हैं, तो भी उसे करना चाहिए? उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि, “यदि हम (भगवान) कुछ ऐसा वचन कहे, जिसमें कुछ अधर्म-सी बात प्रतीत होती हो, तो उसे मानने में अधिक विलम्ब कर देना चाहिए, परन्तु उसे तुरन्त नहीं मान लेना चाहिए। जैसे श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा था कि, ‘अश्वत्थामा का सिर काट डालो,’ किन्तु अर्जुन ने उस बात को नहीं माना, वैसे ही ऐसे वचनों पर यदि हम प्रसन्न हों तो भी उनका पालन नहीं करना चाहिए। यदि किसी वचन के कारण पंचव्रतों सम्बंधी नियमों में से किसी का भी उल्लंघन होता हो, तो उसे नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के वचनों का पालन न करने से भले ही भगवान का हृदय दुखाता हो, किन्तु उसमें भगवान को प्रसन्न नहीं करना चाहिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने प्रश्न किया कि, “भगवान का ध्यान करते समय यदि मन में समुद्र की विशाल तरंगों के समान अघटित कुसंकल्पों की तरंगें उठती हों, तो उन्हें किस प्रकार मिटाना चाहिए?”
इस प्रश्न का भी उन्होंने स्वयमेव उत्तर देते हुए बताया कि, “जब इस तरह के कुसंकल्प होने लगें, तब उस ध्यान को छोड़कर निर्लज्ज होकर जिह्वा द्वारा उच्चस्वर से ताली बजाते हुए ‘स्वामिनारायण, स्वामिनारायण’ भजन करना चाहिए, तथा ‘हे दीनबन्धो! हे दयासिन्धो!’ ऐसे शब्दों का उच्चारण करते हुए भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए। फिर भगवान के मुक्तानन्द स्वामी जैसे बड़े सन्तों के नामोच्चार करते हुए उनकी प्रार्थना करें, तो समस्त कुसंकल्प मिट जाते हैं और शान्ति भी हो जाती है, परन्तु इसके बिना बुरे संकल्पों को टालने का कोई अन्य उपाय नहीं है।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “इस सत्संग में जो सभी को अति महान गुण प्रतीत होता हो और हर कोई उस गुण की प्रशंसा करते हों, फिर भी वह गुण त्याग करने योग्य हो, ऐसा वह कौन सा गुण है? और, ऐसा वह कौन-सा दोष है, जो दोष होने पर भी वह ग्रहण करने योग्य है?”
इसका उत्तर भी स्वयं दिया, “मुक्तानन्द स्वामी जैसे साधु जब अति दृढ़ व्रत-पालन करते हो, तब अन्य साधुओं को उद्वेग होता हो, क्योंकि वे उनके समान अति दृढ़ आचरण नहीं कर पाते, अतः यद्यपि वह गुण महान है, फिर भी उसका परित्याग कर समस्त साधुओं के समान वर्तन रखना चाहिए। भले ही समान-आचरण एक दोषसदृश है, फिर भी उसको ग्रहण कर लेना चाहिए।”
श्रीजीमहाराज ने पुनः प्रश्न पूछा कि, “साधु में ऐसा कौन-सा दोष है, जिसका त्याग करने से दोषमात्र का त्याग हो जाता है तथा ऐसा कौन-सा गुण है, जिसके आने पर समस्त गुण आ जाते हैं?”
इस प्रश्न का भी उत्तर उन्होंने स्वयं दिया कि, “देहाभिमानरूपी जो दोष है, उसमें समस्त दोषों का समावेश रहता है। इसलिए उसका त्याग करने से सभी दोषों का त्याग हो जाता है। और ‘मैं तो देह से भिन्न आत्मा हूँ,’ ऐसा आत्मनिष्ठारूपी गुण आ जाए, तो समस्त गुण आ जाते हैं।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “कैसे पंचविषयों के सेवन से बुद्धि में प्रकाश होता है और कैसे पंचविषयों के सेवन से बुद्धि में अंधकार हो जाता है?”
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने बताया कि, “भगवान सम्बंधी पंचविषयों का सेवन करने से बुद्धि में प्रकाश होता है और जगत सम्बंधी पंचविषयों के सेवन से बुद्धि में अंधकार छा जाता है।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “वह कैसा देश, कैसा काल, कैसा संग और कैसी क्रियाएँ हैं कि भगवान की आज्ञा होने पर भी उनके साथ सम्बंध नहीं करना चाहिए?”
इस प्रश्न का उत्तर भी उन्होंने इस प्रकार दिया कि, “जिस देश में (स्थान) निवास करने पर अपने शरीर के सम्बंधियों से बार-बार बैठने-उठने का योग होता हो, उस देश में भगवान की आज्ञा होने पर भी नहीं रहना चाहिए। और, जहाँ हमारे दर्शनों के साथ-साथ स्त्रियाँ भी दिखाई पड़ती हों, ऐसे संग तथा क्रिया की स्थिति में यदि हम किसी भक्त को बिठाकर निर्देश दें कि, ‘हमारे दर्शन करो,’ तो भी वहाँ नहीं बैठना चाहिए, और कोई भी बहाना निकालकर उस स्थान से उठकर चले जाना चाहिए। तथा जिस काल में विषमता रहती हो और मारपीट की घटनाएँ होती हों, उस स्थान पर ठहरने की यदि भगवान की आज्ञा हो, फिर भी वहाँ से हटकर चले जाना चाहिए, लेकिन उसी स्थान पर रहकर मार नहीं खानी चाहिए।”
फिर श्रीजीमहाराज ने पूछा कि, “किन शास्त्रों का श्रवण तथा अध्ययन करना चाहिए और कौन-से शास्त्रों को सुनना तथा पढ़ना नहीं चाहिए?”
इसका उत्तर भी उन्होंने दिया कि, “जिन शास्त्रों में भगवान के साकार भाव का प्रतिपादन न किया गया हो तथा भगवान के अवतारों का निरूपण भी न हो, वे ग्रन्थ यदि शुद्ध वेदान्त के हों तथा एक अद्वितीय निराकार स्वरूप का प्रतिपादन करनेवाले हों, ऐसे ग्रंथ चाहे कितने ही बुद्धिमान पुरुषों द्वारा रचित किए गए हो, तो भी उनका कभी अध्ययन एवं श्रवण नहीं करना चाहिए। यदि रणछोड़ भक्त१५१ के रचित पदों के समान कीर्तन हों, जिनमें भगवान की मूर्ति का वर्णन किया गया हो, तो उनका गान और श्रवण करना चाहिए और वैसे ही ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए और श्रवण भी करना चाहिए।”
॥ इति वचनामृतम् ॥ ६ ॥ ११४ ॥
This Vachanamrut took place ago.
१५१. वैष्णव परंपरा के गुजराती भक्तकवि।